आलस्य दूर करने की प्रतिक्रिया श्रम-शीलता में समुचित रुचि एवं तत्परता के रूप में दृष्टिगोचर होनी चाहिए। प्रमाद से पिंड छूटा हो, लापरवाही और गैर-जिम्मेदारी हटा दी हो, तो उसके स्थान पर जागरुकता, तन्मयता, नियमितता, व्यवस्था जैसे मनोयोग का परिचय मिलना चाहिए । मधुरता, शिष्टता, सज्जनता, दूरदर्शिता, विवेकशीलता, ईमानदारी, संयमशीलता, मितव्ययता, सादगी, सहृदयता, सेवा भावना जैसी सत्प्रवृत्तियों में ही मानवी गरिमा परिलक्षित होती है। उन्हें अपनाने, स्वभाव का अंग बनाने के लिए सतत प्रयत्नशील रहा जाना चाहिए । आम तौर से लोग धन उपार्जन को प्रमुखता देते हैं और उसी के लिए अपना श्रम, समय, मनोयोग लगाए रहते हैं । उत्कर्ष के इच्छुकों को संपत्ति से भी अधिक सद्गुणों की विभूतियों को महत्व देना चाहिए। परिष्कृत व्यक्तित्व ही वह कल्पवृक्ष है, जिस तक पहुँचने वाला भौतिक और आत्मिक दोनों ही क्षेत्रों को सफलता प्राप्त करता है। धन उपार्जन में जितनी तत्परता बरतनी पड़ती है, उस से कम नहीं वरन् कुछ अधिक ही तत्परता सद्गुणों को, स्वभाव का अंग बनाने में बरतनी पड़ती है। धन तो उत्तराधिकार में, स्वल्प श्रम से, संयोगवश अथवा ऋण अनुदान से भी मिल सकता है, पर सद्गुणों की संपदा एकत्रित करने में तो तिल-तिल करके अपने ही प्रयत्न जुटाने पड़ते हैं। यह पूर्णतया अपने ही अध्यवसाय का प्रतिफल है। उत्कृष्ट चिंतन और आदर्श कर्तृत्व अपनाये रहने पर यह संपदा क्रमिक गति से संचित होती है। चंचल बुद्धि वाले नहीं, संकल्प निष्ठ, सतत प्रयत्नशील और धैर्यवान व्यक्ति ही इस वैभव का उपार्जन कर सकने में समर्थ होते हैं। चक्की के दोनों पाटों के बीच से गुजरने वाला अन्न ही आटा बनता है । सद्विचार और सत्कर्म के दबाव से व्यक्तित्व का सुसंस्कृत बन सकना संभव होता है। अपना लक्ष्य यदि आदर्श मनुष्य बनना हो तो इसके लिए आवश्यक उपकरण अलंकार जुटाये जाते रहेंगे। इन्हीं प्रयत्नों का परिणाम समयानुसार आत्म-निर्माण के रूप में परिलक्षित होता दिखाई देगा। ये भी पढ़ें - अपने राज्य / शहर की खबर अख़बार से पहले पढ़ने के लिए क्लिक करे
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