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पहलगाम में आतंकी हमला: राष्ट्र के साथ खड़े होने का समय

Terror attack in Pahalgam: Time to stand with the nation - Bhiwani News in Hindi

ह नारा उस समय और अधिक सार्थक हो उठता है जब एक निर्दोष पर्यटक अपनी पत्नी के साथ छुट्टियां मनाने गया हो और आतंक की गोली का शिकार हो जाए। पहलगाम की ताज़ा घटना, जिसमें एक हिंदू युवक को टारगेट कर आतंकवादियों ने गोली मार दी, सिर्फ एक हत्या नहीं, बल्कि भारत की आत्मा पर हमला है। और ऐसे समय में यह कहना "प्रश्न पूछने के अवसर भी आएँगे"—कोरी बचाव की भाषा नहीं, बल्कि राष्ट्रहित में संयम की पुकार है। जम्मू-कश्मीर का पहलगाम, जहां का प्राकृतिक सौंदर्य लोगों को आकर्षित करता है, अब आतंक का नया निशाना बन गया है। इस बार किसी सैनिक को नहीं, किसी पुलिसकर्मी को नहीं, बल्कि एक आम हिंदू नागरिक को निशाना बनाया गया जो अपनी पत्नी के साथ पर्यटक बनकर वहां गया था। आतंकियों ने स्पष्ट धार्मिक पहचान देखकर हमला किया। यह हमला दो स्पष्ट संदेश देता है। पहला यह कि पाकिस्तान-समर्थित आतंकी अब भी भारत में धार्मिक विभाजन फैलाने पर आमादा हैं। दूसरा यह कि उनका उद्देश्य केवल कश्मीर को अस्थिर करना नहीं, बल्कि पूरे भारत में डर और नफ़रत का माहौल बनाना है।
इस हमले की जिम्मेदारी लेने वाले संगठनों की जड़ें पाकिस्तान की धरती में हैं। चाहे वो लश्कर-ए-तैयबा हो, या TRF जैसे नए नाम वाले पुराने चेहरे—इनकी फंडिंग, ट्रेनिंग और संरक्षण सब पाकिस्तान से आते हैं। ये आतंकवादी संगठन अब न सिर्फ कश्मीर को चोट पहुंचा रहे हैं, बल्कि पूरे भारत की धार्मिक एकता और पर्यटक स्थलों की शांति को भी लक्ष्य बना रहे हैं।
जब भारत आक्रोशित होता है, तो यह आक्रोश केवल सैनिक कार्रवाई तक सीमित नहीं रहता, बल्कि यह आम भारतीय के भीतर भी जागता है—जो अपने देश के सम्मान और सुरक्षा को सर्वोपरि मानता है। लेकिन इस समय कुछ लोग, खासकर बौद्धिक तबके के कुछ हिस्से और राजनीति के एक विशेष वर्ग से जुड़े लोग, इस घटना को "कश्मीर में असंतोष" कहकर आतंकियों को परोक्ष वैचारिक समर्थन देने लगते हैं।
कुछ मीडिया संस्थान इसे एक सामान्य अपराध बताकर इसकी धार्मिक प्रकृति को छुपाने की कोशिश करते हैं। ये वही लोग हैं जो हर बार आतंक के हमलों को या तो साजिश बताकर नजरअंदाज करते हैं या फिर ‘भूल जाओ, आगे बढ़ो’ जैसे शब्दों में लपेट देते हैं। लेकिन इस बार मामला सिर्फ एक व्यक्ति की मृत्यु नहीं, बल्कि भारत की आत्मा की चीख है, जिसे चुपचाप सह लेना नैतिक अपराध होगा। ऐसे में कुछ लोग कहेंगे, "प्रश्न पूछना तो लोकतंत्र का हक़ है!" बिल्कुल है। लेकिन क्या यह हक़ इतना बेसब्र हो चुका है कि एक घायल पत्नी की आँखों में आँसू सूखने से पहले ही हम प्रेस कॉन्फ्रेंस की मांग करने लगें? क्या एक जवान की शहादत के शव को मिट्टी भी नसीब न हो और हम सड़कों पर ‘क्यों हुआ?’ के नारों में उलझ जाएं?
सवाल पूछिए, ज़रूर पूछिए, लेकिन तब जब देश का मनोबल गिरा न हो, जब अपनों के आँसू थमे हों, जब धुआँ छँट जाए। अभी वक्त है एक स्वर में खड़े होने का, एकजुटता में जवाब देने का। यह समझना ज़रूरी है कि देशभक्ति केवल वर्दी में नहीं, विचार में भी होती है। जब कश्मीर में एक हिंदू नागरिक को सिर्फ इसलिए मारा जाए क्योंकि वह हिंदू है, और तब भी देश के भीतर कुछ लोग चुप रहें, या मुद्दे से ध्यान भटकाएं, तो यह नैतिक पराजय होती है। वह वीरता क्या काम की, जो बंदूक थामे बिना चुपचाप अत्याचार को सहन करे? क्या लेखकों, कलाकारों, विचारकों और नागरिकों की कोई ज़िम्मेदारी नहीं? क्या हम सिर्फ ट्रेंडिंग हैशटैग तक सीमित रह गए हैं?
इस घटना के बाद सबसे बड़ा कार्य है सच्चाई को साफ-साफ स्वीकारना। धार्मिक टारगेटिंग हुई है और उसे इसी रूप में स्वीकार कर उसका विरोध करना चाहिए। सेकुलरिज्म का मतलब यह नहीं कि सच्चाई से आँखें फेर ली जाएं। सेकुलरिज्म की सच्ची परीक्षा तभी होती है जब आप पीड़ित की जाति या धर्म देखकर नहीं, उसके दर्द को देखकर खड़े होते हैं। भारत की आत्मा बहुलता में विश्वास करती है, लेकिन वह बहुलता तब तक ही जीवित है जब तक आप सच्चाई से भाग नहीं रहे। सोशल मीडिया के इस दौर में झूठ फैलाना आसान है, लेकिन सच का साथ देना ज़्यादा ज़रूरी है। अफवाहों से ज़्यादा खतरनाक है चुप्पी। हमें चाहिए कि हम तथ्य साझा करें, संवेदनशीलता के साथ। सरकार, सेना और सुरक्षाबलों का मनोबल सिर्फ हथियारों से नहीं, हमारे शब्दों और समर्थन से भी बढ़ता है। इस कठिन समय में यदि हम एक भी गलत संदेश दे बैठें, तो हम आतंकवादियों के हाथों में अप्रत्यक्ष रूप से हथियार सौंपते हैं। इस घटना ने भारत के सामने एक बार फिर वही सवाल खड़ा कर दिया है क्या हम एक हैं, या टुकड़ों में बंटे हुए हैं? जब पहलगाम में एक परिवार उजड़ता है, तो सिर्फ कश्मीर नहीं, पूरा देश घायल होता है। उस महिला की चीखें जो अपने पति की लाश के सामने बदहवास होकर रोती रही, वह केवल एक पत्नी का रोदन नहीं था, वह भारत माता की कराह थी। और इसका उत्तर हम केवल आँसू पोंछकर नहीं, एकजुट होकर दे सकते हैं।
यह सही है कि हर घटना पर सरकार से जवाबदेही मांगी जानी चाहिए, लेकिन वह एक प्रक्रिया है, जो समय लेकर संस्थानों से पूरी होती है। लेकिन जनता का काम क्या है? सिर्फ सवाल करना? या फिर ज़रूरत पड़ने पर उस राष्ट्रध्वज के नीचे खड़े होना, जिसकी छाया में हम सांस लेते हैं? लोकतंत्र बहस का नाम है, लेकिन उस बहस की गरिमा तब ही रहती है जब वह उचित समय पर हो। संकट की घड़ी में बहस नहीं, भरोसा चाहिए। जब हम युद्ध में होते हैं, तब हम रणनीति पर चर्चा नहीं करतेहम योद्धाओं का साथ देते हैं।
इसलिए आज जरूरत है कि हम उस एक पर्यटक को एक प्रतीक मानें—उस भारत का प्रतीक, जो अपने परिवार के साथ छुट्टियाँ मनाने निकलता है, अपनी ज़िंदगी में विश्वास रखता है, और फिर अचानक एक आतंक की गोली से छिन जाता है। हमें यह याद रखना होगा कि अगर हम आज नहीं जागे, तो कल कोई और पहलगाम में मारा जाएगा, और तब भी हम यही कहेंगे—"बहुत अफ़सोस है।" लेकिन अब समय अफ़सोस का नहीं, संकल्प का है। संकल्प इस बात का कि हम सच्चाई से डरेंगे नहीं। हम धर्म के नाम पर मारे गए किसी भी नागरिक के लिए एकजुट होंगे। हम आतंक के हर स्वरूप के खिलाफ एक स्वर में बोलेंगे।
हम आलोचना करेंगे, लेकिन तब जब देश की आँखें नम न हों। हम सवाल उठाएंगे, लेकिन तब जब देश की आत्मा घायल न हो। पहलगाम में मारे गए युवक की पत्नी ने जो चीखें मारीं, वो सिर्फ एक परिवार का दर्द नहीं था—वो भारत की अस्मिता की पुकार थी। और उसका जवाब यह होना चाहिए कि देश एक है, सभी मतभेदों से ऊपर उठकर, एक स्वर में बोले: "राष्ट्र सर्वोपरि।" प्रश्न पूछिए, पर तब जब धुआँ छँट जाए।

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Web Title-Terror attack in Pahalgam: Time to stand with the nation
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