नई दिल्ली। दिल्ली हाईकोर्ट के सामने सोमवार को सवाल आया कि क्या संविधान
के अनुच्छेद 370 के तहत राष्ट्रपति आदेश के बिना जम्मू कश्मीर में किसी
संवैधानिक संशोधन का लागू नहीं होना न्यायाधीशों के लिए वहां भारतीय
संविधान के क्रियान्वयन को अनिवार्य नहीं बनाता। [@ वर्ष 2016 की वे खबरें जो बनी पूरे विश्व में चर्चा का विषय ]
हाईकोर्ट ने कहा कि वह
केन्द्र और राज्य से इस बारे में जवाब चाहता है कि जम्मू कश्मीर के
हाईकोर्ट के न्यायाधीश संविधान के प्रति निष्ठा की शपथ लेते हैं या नहीं।
मुख्य न्यायाधीश जी रोहिणी और जस्टिस संगीता ढींगरा सहगल की पीठ ने यह आदेश
उस समय दिया जब याचिकाकर्ता के वकील ने आरोप लगाया-ऎसा लगता है कि जम्मू
कश्मीर में हाईकोर्ट के न्यायाधीश भारतीय संविधान को लागू करने के लिए
बाध्य नहीं हैं।
पीठ ने कहा कि पहली नजर में उसका मानना है कि फोरम
कनवीनियेंस के सिद्धांत को देखते हुए याचिकाकर्ता के लिए जम्मू कश्मीर
हाईकोर्ट से गुहार लगाना उचित होगा।
पीठ ने इस मामले में सुनवाई के लिए 13 फरवरी की तारीख तय की और कहा,
याचिकाकर्ता के वकील के अनुसार ऎसा लगता है कि जम्मू कश्मीर हाईकोर्ट के
न्यायाधीश भारत के संविधान को लागू करने के लिए निष्ठा की शपथ नहीं लेते
हैं। हम इस मुद्दे पर प्रतिवादियों (केन्द्र और जम्मू कश्मीर) को सुनना
चाहते हैं।
वकील सुरजीत सिंह ने संविधान आदेश 1954 को चुनौती दी है जिसमे संविधान के
अनुच्छेद 368 के एक प्रावधान को जोडा गया है। संविधान आदेश 1954 में
अनुच्छेद 368 (संविधान में संशोधन और उसकी प्रक्रिया के बारे में संसद के
अधिकार) का एक प्रावधान जोडा गया जिसमें कहा गया है कि ऎसा कोई भी संशोधन
जम्मू कश्मीर राज्य के मामले में उस समय तक प्रभावी नहीं होगा जब तब
राष्ट्रपति अनुच्छेद 370 के उपबंध (1) के तहत राष्ट्रपति के आदेश से लागू
नहीं किया जाये।
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