नई दिल्ली । भारत के प्रधान
न्यायाधीश एन.वी. रमणा ने रविवार को कहा कि संवैधानिक अदालतों की क्षमता
मुख्य रूप से विपरीत परिस्थितियों का सामना करते हुए पूर्ण स्वतंत्रता और
आवश्यक साहस के साथ काम करने की है। यही संस्था के चरित्र को परिभाषित करती
है।
उन्होंने इस बात पर जोर दिया कि कानून को मानवीय रूप से संचालित करने की
जरूरत है और राज्य की न्यायपालिका को लोगों की समस्याओं और उनकी व्यावहारिक
कठिनाइयों के प्रति संवेदनशील होना चाहिए। ये भी पढ़ें - अपने राज्य / शहर की खबर अख़बार से पहले पढ़ने के लिए क्लिक करे
प्रधान न्यायाधीश
राष्ट्रीय कानूनी सेवा प्राधिकरण (एनएएलएसए) द्वारा आयोजित अखिल भारतीय
कानूनी जागरूकता और आउटरीच अभियान के समापन समारोह में बोल रहे थे।
उन्होंने
कहा, "राज्य की न्यायपालिका लोगों के साथ निकटता से जुड़ी हुई है, इसे
उनकी समस्याओं और व्यावहारिक कठिनाइयों के बारे में संवेदनशील व जागरूक
होना चाहिए। विशेष रूप से, इसे पीड़ितों और साथ ही अभियुक्तों दोनों के
बारे में संज्ञान लेने की जरूरत है। इसे उनकी आपातकालीन जरूरतें पूरी करनी
चाहिए।"
उन्होंने आगे कहा, "आखिरकार, कानून को मानवीय रूप से काम
करने की जरूरत है। याद रखें, यह ट्रायल कोर्ट है, जिससे संकट में किसी
महिला, देखभाल की जरूरत वाले बच्चे या किसी अवैध बंदी द्वारा सबसे पहले
संपर्क किया जाता है।"
प्रधान न्यायाधीश ने जोर देकर कहा कि अदालत
के फैसलों का बहुत बड़ा सामाजिक प्रभाव होता है और यह आसानी से समझ में आने
वाला होना चाहिए। इसे सरल और स्पष्ट भाषा में लिखा जाना चाहिए।
उन्होंने
कहा कि प्राथमिक रूप से संवैधानिक अदालतों की पूर्ण स्वतंत्रता और विपरीत
परिस्थितियों में आवश्यक साहस के साथ कार्य करने की क्षमता ही संस्था के
चरित्र को परिभाषित करती है। उन्होंने कहा, "संविधान को बनाए रखने की हमारी
क्षमता हमारे त्रुटिहीन चरित्र को बनाए रखती है। लोगों के बीच विश्वास के
साथ जीने का कोई दूसरा तरीका नहीं है। गरीबी एक दुर्भाग्य है, जिसके लिए
कानून कोई जिम्मेदारी नहीं ले सकता।"
प्रधान न्यायाधीश ने कहा कि
अमीरों और वंचितों के बीच का अंतर अभी भी एक वास्तविकता है और चाहे कितनी
ही कल्याणकारी घोषणाएं क्यों न हों, एक समय गरीबी, असमानता और अभाव के
सामने ये सब व्यर्थ प्रतीत होने लगते हैं।
उन्होंने कहा, "एक
कल्याणकारी राज्य का हिस्सा होने के बावजूद, वांछित स्तर पर लाभार्थियों को
लाभ नहीं मिल रहा है। एक सम्मानजनक जीवन जीने के लिए लोगों की आकांक्षाओं
को अक्सर चुनौतियों का सामना करना पड़ता है और उनमें से एक चुनौती मुख्य
रूप से गरीबी है।
मुख्य न्यायाधीश ने कहा, "दुख की बात है कि
स्वतंत्र भारत को अपने औपनिवेशिक अतीत से एक गहरा खंडित समाज विरासत में
मिला है। उसी पर विचार करते हुए पंडित नेहरू ने एक बार कहा था कि आर्थिक
स्वतंत्रता के बिना कोई वास्तविक स्वतंत्रता नहीं हो सकती और भूखे व्यक्ति
को स्वतंत्र कहकर केवल उसका मजाक उड़ाया जा सकता है।"
उन्होंने इस
बात पर जोर दिया कि न्यायिक परिवार के सभी सदस्य सामाजिक व्यवस्था को बदलें
और वंचित लोगों को सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक और सांस्कृतिकस्तर पर न्याय
दें, जैसा कि संविधान की गौरवशाली प्रस्तावना में वादा किया गया था।
--आईएएनएस
खास खबर डॉट कॉम : टॉप हैडलाइंस
कांग्रेस के समय सीबीआई ने मोदी को फंसाने के लिए मुझे मजबूर किया : अमित शाह
भगोड़े अमृतपाल सिंह के संदिग्ध बॉडीगार्ड के खिलाफ जम्मू-कश्मीर में केस
Daily Horoscope