"डर" का सबसे बड़ा
कारण है "अज्ञान"। जिसे हम ठीक तरह नहीं जानते उससे प्रायः डरा करते हैं।
सृष्टि के आरंभ में आदिम मनुष्य सूर्य, चंद्र, समुद्र, बादल, बिजली, नदी, पर्वत, आँधी,
आग, सर्प का स्वरूप ठीक तरह समझ न पाया था, इसलिए चेतना विकास के प्रथम चरण में उनकी
स्थिति, शक्ति और मर्यादा की समुचित जानकारी न थी, फलस्वरूप उनसे डर लगा। देवता के
रूप में उन्हें कल्पित किया गया और अनेक पूजा विधानों से उन्हें संतुष्ट करने का प्रयत्न
किया गया ताकि वे अपना कोई अहित न करें। मृत्यु के उपरांत का जीवन अभी भी रहस्यमय है
पर पूर्वकाल में और भी रहस्यमय बना हुआ था। इस अज्ञान ने प्रत्येक मृतक को भूत-प्रेत
की मान्यता प्रदान कर दी और आकस्मिक दुर्घटनाओं, विपत्तियों एवं बीमारियों का मूल कारण
विदित न होने से उन्हें भूत की करतूत समझ लिया गया। प्रायः ऐतिहासिक काल में मनुष्य
की मनोभूमि का अधिकांश भाग इन देवताओं और भूतों का संतोष समाधान करने में व्यतीत होता
था ।
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ज्ञान का जैसे-जैसे विकास हुआ
वे भय छूट गए। बीमार होते ही भूत को बलि चढ़ाने की तैयारी ही जिनके मस्तिष्क में एकमात्र
उपाय सूझता हो ऐसे लोग अब बहुत थोड़े हैं, वे सभ्य समाज में उपहासास्पद माने जाते हैं।
इसी प्रकार अलग-अलग सत्ता वाले, एक दूसरे से लड़ने-झगड़ने और ईर्ष्या, द्वेष करने वाले
देवताओं के स्थान पर अब इन्हें एक ही ईश्वरीय शक्ति के विभिन्न काम माना जाने लगा है।
ग्रह- नक्षत्रों की विद्या की सही जानकारी जैसे-जैसे बढ़ रही है वैसे-वैसे शनि और राहु
की अनिष्टकर ग्रह दशा का आतंक समाप्त होता चला जा रहा है।
उचित-अनुचित का विवेक जाग्रत होने पर भी मनुष्य निश्चिंत हो सकता है। उसके सामने लक्ष्य
और मार्ग स्पष्ट रहने से न तो उलझन रहती है और न परेशानी। हवा में उड़ते हुए पत्ते
की तरह जो चारों ओर मन डुलाता है उसे सफलता असफलता का भय बना रहता है। सच्ची निर्भयता
उसे ही मिलती है जिसके सामने अपना कर्त्तव्य ही प्रधान है। परिणाम को अधिक महत्त्व
देने वाला व्यक्ति असफलता को न तो अधिक महत्त्व देता है और न उससे डरता है।
ईश्वर-विश्वास निर्भयता का
सर्वोपरि उपाय है। पुलिस गारद के पहरे में रहने वाले को जब आक्रमणकारी शत्रुओं से निश्चितता
मिल जाती है. सुरक्षा अनुभव होती है तो सर्वशक्तिमान परमात्मा को अपना साथी-सहचर बना
लेने वाले के लिए डरने की गुंजाइश कहाँ रह जाती है। जिसने धर्म को अपना आधार बना लिया
उसका भविष्य अंधकारमय हो ही नहीं सकता, फिर किसी से भी डरने की ऐसे व्यक्ति के लिए
बात ही क्या रह जाती है।
उपरोक्त प्रवचन पंडित
श्रीराम शर्मा आचार्य द्वारा लिखित पुस्तक निर्भय
बनें, शांत रहें—
पृष्ठ-21 से लिया गया है।
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