बगीचे में जिस प्रकार हर तरह से फूल उगाए जा सकते हैं, उसी प्रकार परिवार की बगिया में भी जैसे चाहे अच्छे बुरे किसी भी तरह के फूल पौधे लगाए जा सकते हैं। परिवार को अधिक ठीक प्रकार से सुगठित और विकसित किया जा सके, उसे आदर्शवादी ढाँचे में ढाला जा सके तो उसी परिधि में समस्त समस्याओं को हल किया जा सकता है। इसमें प्रत्येक विचारशील व्यक्ति को ध्यान देना चाहिए।
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इस संदर्भ में यह मानकर चलना चाहिए कि परिवार एक प्रयोगशाला है। किसी भी क्षेत्र में कौशल को दिखाना हो तो उसके लिए अनिवार्य रूप से एक कार्यक्षेत्र चाहिए। वैज्ञानिकों को प्रयोगशाला की, पहलवानों को व्यायाम शाला की, डॉक्टरों को अस्पतालों की, अध्यापकों को पाठशाला की, शिल्पी को कारखाने की आवश्यकता पड़ती है । कौशल का अभ्यास और निखार, इन्हीं कार्यक्षेत्रों में होता है। यदि यह साधन हों तो भी एकाकी प्रयत्न से ही अपने पुरुषार्थ को प्रकट एवं विकसित कर सकना किसी के लिए भी संभव न होगा।
साधना-अध्यात्म-साधना, जीवन-साधना का अभ्यास कहाँ किया जाए? इसके लिए दो स्थानों की आवश्यकता है। एक पूजा कक्ष और दूसरा प्रयोग क्षेत्र। प्रयोग क्षेत्र की दृष्टि से परिवार ही सर्वसुलभ है। व्यायामशाला में जो सीखा है, उसे दंगल में प्रयुक्त करना पड़ता है। स्कूल में जो पढ़ा है वह दफ्तर में व्यवह्रत होता है। मेडिकल कॉलेज की पढ़ाई अस्पताल के मरीजों पर क्रियान्वित होती है।
इसी प्रकार पूजा-प्रार्थना से अंतरंग और स्वाध्याय सत्संग से बहिरंग सत्प्रेरणाएँ प्राप्त होती हैं। उन्हें कार्य रूप में परिणत करने और अभ्यास में उतारने की भी आवश्यकता है अन्यथा व्यावहारिक प्रयोग के अभाव में योगाभ्यास और अध्ययन चिंतन निष्क्रिय पड़ा रहेगा। उस स्थिति में उपासना के बीजारोपण को, खाद- पानी न मिलने से उसके सूखने और मुरझाने की आशंका बनी रहेगी। इसके लिए परिवार ही सबसे उपयुक्त क्षेत्र है ।
उपरोक्त प्रवचन पंडित श्रीराम शर्मा आचार्य द्वारा लिखित पुस्तक नर रत्नों की खदान सुसंस्कृत परिवार, पृष्ठ- 3 से लिया गया है।
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