गोरखपुर । गोरखपुर का शुमार पूर्वाचल
के प्रमुख शहरों में होता है। बस्ती, आजमगढ़, मऊ, महाराजगंज, देवरिया,
बस्ती और संतकबीर नगर भी कभी अविभाजित गोरखपुर के ही हिस्से हुआ करते थे।
प्राचीन काल से ही यह ऐतिहासिक और धार्मिक अहमियत वाला शहर रहा है।
डॉ. सदािशव राव अल्तेकर ने इस शहर के बारे में सही ही कहा था, गोरखपुर जनपद
के इतिहास से बहुत कुछ सीखना है। सीने में आग और धड़कता दिल वहां के लोगों
की पहचान रही है। इसी नाते वहां के लोग कभी लंबे समय तक गुलाम नहीं रहे।
जब किसी ने गुलाम बनाने की कोशिश की तो उनके सीने की आग धधक उठी और वह
बगावत पर उतर आए। 1857 के गदर के पहले बागी मंगल पांडेय भी पूर्वाचल
(बलिया) के ही थे। ये भी पढ़ें - अपने राज्य - शहर की खबर अख़बार से पहले पढ़ने के लिए क्लिक करे
ऐसे में चौरीचौरा कांड के पहले 1857 की बगावतों
पर सिलसिलेवार एक नजर डालना समीचीन होगा। यही बगावत बाद में चौरीचौरा के
घटना की पृष्ठभूमि बनी। भावी पीढ़ी अपने गौरवशाली इतिहास को याद रखें - इसी
मकसद से चौरीचौरा के शताब्दी वर्ष में योगी सरकार जंगे आजादी के ज्ञात और
अज्ञात सपूतों के नाम साल भर तक चलने वाले कार्यक्रमों का आयोजन करने जा
रही है।
उल्लेखनीय है कि 1857 से ही गोरखपुर कई ऐतिहासिक घटनाओं का
साक्षी रहा है। यहां सतासी, नरहरपुर और बढ़यापुर जैसी रियासतें थीं
जिन्होंने ब्रिटिश हुकूमत से लोहा लिया और उनके पराक्रम के कारण उनका नाम
इतिहास के पन्नों में दर्ज हो गया।
सतासी - देवरिया मुख्यालय से 23
किमी दूर रुद्रपुर और आस-पास के करीब 87 गांव उस समय राजा उदित नारायण
सिंह के अधीन थे। 8 मई 1857 को इन्होंने अपने सैनिकों के साथ गोरखपुर से
सरयू नदी के रास्ते आजमगढ़ जा रहे खजाने को लूटकर फिरंगियों के साथ जंगे
एलान करने की घोषणा कर दी। साथ ही अपनी सेना के साथ घाघरा के तट पर मोर्चा
संभाल लिया।
तत्कालीन कलेक्टर डब्ल्यू पीटरसन इस सूचना से आग बबूला
हो गया। बगावत को कुचलने और राजा की गिरफ्तारी के लिए उसने एक बड़ी फौज
रवाना की। इसकी सूचना राजा को पहले ही लग गयी। उन्होंने ऐसी जगह मोर्चेबंदी
की जिसकी भनक अंग्रेजों को नहीं लगी। अप्रत्याशित जगह पर जब फिरंगी फौज से
उनकी मुठभेड़ हुई तो अंग्रेजी फौज के पांव उखड़ गए। राजा के समर्थक
ब्रिटिश नौकाओं द्वारा भेजे जाने वाली रसद सामग्री पर नजर रखते थे। मौका
मिलते ही या तो उसे लूट लेते थे या नदी में डूबो देते थे। सतासी राज को
कुचलने के लिए बिहार और नेपाल से सैन्य दस्ते मंगाने पड़े।
नरहरपुर -
यहां के राजा हरि प्रसाद सिंह ने 6 जून 1857 को बड़हलगंज चौकी पर कब्जा कर
वहां बंद 50 कैदियों को मुक्त करा कर बगावत का बिगुल फूंका। साथ ही घाघरा
के घाटों को भी अपने कब्जे में ले लिया। उसी समय पता चला कि वाराणसी से आए
कुछ अंग्रेज सैनिक दोहरीघाट से घाघरा पार करने वाले हैं। राजा के इशारे पर
उनके वफादार नाविकों ने उन सबको नदी में डूबो दिया। सूचना पाकर स्थानीय
प्रशासन बौखला गया।
उन्होंने दोहरीघाट स्थित नीलकोठी से तोप
लगावाकर नरहरपुर के किले को उड़वा दिया। इस गोलाबारी में जान-माल की भी
भारी क्षति हुई। राजा हाथी पर बैठकर सुरक्षित बच गए। कहा जाता है कि तपसी
कुटी में उस समय संन्यासी के रूप में रहने वाले व्यक्ति ही राजा थे। यहीं
से तपसी सेना बना कर वे अंग्रेजों से लोहा लेते रहे।
बढ़यापुर -
गोला-खजनी मार्ग के दक्षिण-पश्चिम स्थित बढ़यापुर स्टेट ने भी अंग्रेजों से
जमकर लोहा लिया। 1818 में कर बकाया होने के कारण अंग्रेजों ने राज्य का
कुछ हिस्सा जब्त कर उसे पिंडारी सरदार करीम खां को दे दिया। पहले से ही
नाराज चल रहे यहां के राजा तेजप्रताप चंद ने 1857 में जब अंग्रेजों के
खिलाफ बगावत शुरू की तो राजा ने भी संघर्ष की घोषणा कर दी। इस वजह से बाद
के दिनों में उनको राज-पाट से हाथ धोना पड़ा। 1857 की बगावत को कुचलने के
बाद भी छिटपुट विद्रोह जारी रहा। इतिहास को यू टर्न देने वाली चौरीचौरा की
घटना भी इनमें से ही एक है।
मुख्यमंत्री योगी ने कहा कि चौरीचौरा
शताब्दी महोत्सव लोगों में राष्ट्र भक्ति और देश प्रेम की भावना जागृत करने
में सहायक होगा। इससे चौरीचौरा की घटना तथा भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के
सम्बन्ध में समग्र जानकारी प्राप्त हो सकेगी।
--आईएएनएस
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