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लोकतांत्रिक भारत के इतिहास का काला धब्बा "आपातकाल"

Black spot of the history of democratic India Emergency - Jaipur News in Hindi

डॉक्टर आलोक भारद्वाज

जयपुर । भारत में अंग्रेजी हुकूमत के समय अत्याचारों से तंग आकर देशवासियों ने क्रांतियां की, सत्याग्रह किए, और कई बलिदानों के बाद भारत को आजादी मिली ।
अंग्रेजों के चले जाने के बाद भारत वासियों को इस बात की खुशी थी कि अब भारत में लोकतंत्र आ चुका है और यहां पर किसी का तानाशाही रवैया नहीं चलेगा, किंतु बहुत जल्दी ही 25 जून 1975 की रात्रि को इंदिरा गांधी ने भारतीय लोकतंत्र की मान्यताओं का हनन करते हुए आपातकाल की घोषणा की थी ।
यह दिन भारतीय लोकतंत्र के इतिहास में काला और कलंकित करने वाला दिन था । और आपातकाल में भारतीय लोकतंत्र मूल्यों की धज्जियां उड़ती रही। इंदिरा गांधी ने देश के हर तबके के लोगों को दबाने की कोशिश की।

भारतीय संविधान में आपातकाल की चर्चा संविधान के 18 वें हिस्से में आर्टिकल 352 से 360 के बीच की गई है भारतीय संविधान में यह प्रावधान वेइमार संविधान ( 1919 से 1933) से लिया गया है वेइमार रिपब्लिक जर्मनी को कहा जाता था।

ऐसी स्थिति में केंद्र सरकार के पास इस प्रावधान के तहत अधिक शक्तियां आ जाती हैं और केंद्र सरकार अपनी मर्जी के अनुसार निर्णय लेने में समर्थ हो जाती है।

हालांकि यह शक्तियां देश को आपातकालीन परिस्थितियों से उबारने के लिए होती है लेकिन संविधान में प्रदत्त इस शक्ति का इंदिरा गांधी ने केवल खुद को उभारने और निजी हितों के लिए उपयोग कर देश के लोकतंत्र पर कलंक लगा दिया।

भारत में आपातकाल सिर्फ भारत के राष्ट्रपति लागू कर सकते हैं इसके लिए उन्हें यूनियन कैबिनेट के द्वारा लिखित में सिफारिश की आवश्यकता होती है, लेकिन 1975 में ऐसा नहीं हुआ था और उस समय प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने मौखिक तौर पर घोषणा करके देश में आपातकाल लागू कर दिया ।

वर्ष 1975 के इस त्रासदी पूर्ण आपात काल को भारतीय लोकतांत्रिक इतिहास का काला दिन माना जाता है इस आपातकाल के पीछे इंदिरा गांधी ने इंटरनल डिस्टरबेंस का हवाला दिया था और इसी हवाले पर यह आपातकाल 21 मार्च 1977 तक चला ।

इंदिरा गांधी की तानाशाहीपूर्ण नीतियों के अधिकतर विरोधियों को जेल में डाल दिया गया और भारतीय मीडिया तथा प्रेस को भी सेंसर कर दिया गया ।

हुआ यह था कि वर्ष 1973 से1975 के बीच इंदिरा गांधी के खिलाफ उनकी कुनीतियों के खिलाफ पूरे भारत में अशांति और आक्रोश फैलने लगा था, उस समय गुजरात का नवनिर्माण आंदोलन जैसे कई आंदोलन हुए जिन्होंने इंदिरा गांधी की कुनीतियों का विरोध किया था ,और बिहार में अप्रैल 1974 में बिहार छात्र संघर्ष समिति को जयप्रकाश नारायण ने समर्थन दिया और बिहार सरकार के खिलाफ एक बड़ा आंदोलन खड़ा हुआ। जयप्रकाश नारायण ने इस आंदोलन को संपूर्ण क्रांति का नाम देकर विद्यार्थियों किसानों और मजदूरों को एक साथ एक मंच पर आने का ऐलान किया , इस आंदोलन का उद्देश्य था कि सभी लोग पूरे अहिंसात्मक तरीके से अपनी मांगे सरकार के सामने रखें।

इसी समय रेलवे कर्मचारियों ने पूरे देश में हड़ताल की और रेलवे की हड़ताल को भी इंदिरा गांधी ने इतने निर्मम तरीके से दबाया कि ना केवल रेलवे कर्मचारियों को गिरफ्तार किया बल्कि उनके परिवार वालों को रेलवे क्वार्टर से बाहर निकाल दिया।

और जब इस तरह की इंदिरा गांधी की एक पक्षीय अराजक नीतियां बढ़ने लगी तो जनता में भी विरोध की भावनाएं मुखर होने लगी और जनता के इस विरोध को देख कर इंदिरा गांधी ने स्वयं को सुधारने की बजाय अपने कुछ तथाकथित ईमानदार नेताओं की सलाह को मानना सही समझा ,पश्चिम बंगाल के तत्कालीन मुख्यमंत्री सिद्धार्थ शंकर राय ने भी इंदिरा गांधी को देशभर में आंतरिक आपातकाल लागू करने की सलाह दी।
इस तरह से ओछी राजनीतिक दुर्भावना के साथ सिद्धार्थ शंकर राय ने यह कर दिखाया कि किस तरह संविधान के दायरे में रहकर भी लोकतांत्रिक मूल्यों का हनन किया जा सकता है ।
और फिर संविधान प्रदत्त शक्तियों का दुरुपयोग करते हुए इंदिरा गांधी ने आम लोगों और अपने विरोधियों को दबाने का कार्य शुरू कर दिया, और कई जन नेताओं जैसे विजयाराजे सिंधिया, जयप्रकाश नारायण ,राज नारायण ,मोरारजी देसाई ,चौधरी चरण सिंह ,अटलबिहारी वाजपेयी, लालकृष्ण आडवाणी, अरुण जेटली, महारानी गायत्री देवी , जैसों को गिरफ्तार करवा दिया इतना ही नहीं राष्ट्र सेवा हेतु समर्पित संगठन राष्ट्रीय सेवक संघ और जमात-ए-इस्लामी जैसी संस्थाओं पर भी इंदिरा सरकार ने बैन लगा दिया।

हालांकि कांग्रेस में भी कुछ अच्छे लोग मौजूद थे जिन्होंने जन हित को सर्वोपरि मानते हुए इंदिरा गांधी की इस नीति का विरोध किया तो इंदिरा गांधी ने मोहन धारिया और चंद्रशेखर जैसे लोगों को गिरफ्तार करवा लिया और ये कांग्रेसी नेता अपना इस्तीफा देकर कांग्रेस पार्टी से हट गये ।

कानून, मानव अधिकार, जैसे शब्दों की धज्जियां उड़ाने वाली इंदिरा गांधी की इस नीति के कारण अनेकों राज्य सरकारों को बर्खास्त कर दिया गया, चुनावों को रद्द कर दिया गया था।

जस्टिस खन्ना ने अपनी किताब "मेकिंग ऑफ इंडिया कॉन्स्टिट्यूशन"
में लिखा है कि कोई भी संविधान केवल पन्ने पर लिखा गया नियम नहीं है बल्कि आम लोगों के जीवन यापन का तरीका है । लेकिन इंदिरा गांधी ने लोगों के जीवन यापन की कतई परवाह नहीं करी इस समय इंदिरा गांधी को यह लगा कि तत्कालिक कानून व्यवस्था उनके मुताबिक नहीं है तो उन्होंने राष्ट्रपति के लिए ऐसे शख्स को चुना जिसके होने से वह अपने मनमुताबिक कार्य कर सकती थी ।

इस तरह इंदिरा गांधी 'रूल बाई डिक्री' के अनुसार अपना शासन चलाना चाहती थी ।
इतना ही नहीं, आज भी लोगों को यह ध्यान है कि सितंबर 1976 में देश भर में जबरन नसबंदी जैसा आदेश दे दिया गया था और कई लोगों को इतना परेशान किया गया कि वह एक समय तक कार्य करने तथा जीविकोपार्जन करने में भी असमर्थ रहे , हवासिंह नाम के एक जवान विधुर को भी जबरदस्ती नसबंदी करवाने के लिए बुलाया गया और इंफेक्शन की वजह से उसकी मौत हो गई थी।

इंदिरा गांधी के द्वारा लगाया गया आपातकाल लोकतांत्रिक भारत के विकास को बाधित करने के लिए और अपनी तानाशाही प्रवृत्ति को अमलीजामा पहनाने के लिए उठाया गया निंदनीय कृत्य था जिसकी युगों युगों तक सिर्फ आलोचना ही होती रहेगी क्योंकि आपातकाल के समय लोकतंत्र को प्रताड़ित करने वाले अनेकों कुकृत्य किए गए थे ,जैसे

1. बिना किसी चार्ज के आम लोगों की पुलिस के द्वारा जांच पड़ताल करवाई।

2. कई आम तथा निजी मीडिया का सरकारी प्रचार प्रसार के लिए प्रयोग किया गया ।

3. आपातकाल के दौरान संजय गांधी ने जब किशोर कुमार को कांग्रेस पार्टी की मुंबई रैली के लिए गाना गाने को कहा और किशोर कुमार के इन्कार करने पर तत्कालीन सूचना प्रसारण मंत्री विद्याचरण शुक्ल ने किशोर कुमार के गानों का दूरदर्शन TV पर आने पर अनौपचारिक बैन लगा दिया था, यह 4 मई 1976 से लेकर आपातकाल के अंतिम दिनों तक चला।

5. सरकार के द्वारा जबरन नसबंदी की प्रक्रिया ने कई निसंतानों को नामर्द और बांझ बना दिया और परिवारों को खत्म कर दिया।

6. इस समय कई किताबों और फिल्मों पर भी बैन लगा दिया गया ताकि इंदिरा गांधी की कुनीतियों का विरोध आम जनता तक नहीं पहुंच पाए और भारत की जनता इंदिरा गांधी की तानाशाही नीतियों के बाहुपाश में बंधी रहे ।

इस तरह से आपातकाल का समय भारतीय राजनीतिक इतिहास में भारत वासियों के लिए एक बहुत दुखद अवधि रही है जिसे आज भी सबक के तौर पर याद किया जाता है आम नागरिक के मन में सोचने पर यह प्रश्न अवश्य उठता है कि वंशवाद से ग्रस्त कांग्रेस पार्टी आखिर क्यों भारतवर्ष के विकास से पहले खुद के निजी हितों को वरीयता देती है कांग्रेस की तथाकथित कारगुजारियों को भांपकर शायद वर्षों पूर्व हमारे राष्ट्रपिता आदरणीय महात्मा गांधी जी ने यह कहा था कि " As a political party Congress shall witheraway" ।



नोट - लेखक राजनीतिक विश्लेषक है।

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