दौसा। बड़ियाल फाउंडेशन के चेयरमैन डॉ डी एस शर्मा ने एसएमएस अस्पताल में हुए अग्निकांड के बाद राजस्थान के सरकारी अस्पतालों में सुरक्षा पर सवाल उठाए हैं।
उन्होंने कहा कि राजस्थान जैसे बड़े राज्य में स्वास्थ्य सेवाएँ लगातार विस्तार की ओर बढ़ रही हैं। हर जिले में नए-नए सरकारी अस्पताल, मेडिकल कॉलेज और स्वास्थ्य केंद्र खोले जा रहे हैं ताकि जनता को बेहतर उपचार सुविधाएँ मिल सकें। लेकिन हाल के वर्षों में इन अस्पतालों में आग लगने की घटनाएँ लगातार बढ़ रही हैं, जिसने न केवल प्रशासन को बल्कि आम नागरिकों को भी गहरी चिंता में डाल दिया है। ऐसी घटनाएँ न सिर्फ मानव जीवन के लिए खतरा बन रही हैं बल्कि यह सवाल भी उठाती हैं कि आखिर इन हादसों के पीछे जिम्मेदार कौन है?
पिछले कुछ वर्षों में राजस्थान के कई सरकारी अस्पतालों में लगातार आग लगने की घटनाएँ सामने आ रही है जिनमें प्रमुख जयपुर के एसएमएस अस्पताल,अजमेर के जवाहरलाल नेहरू अस्पताल, बीकानेर के पीबीएम हॉस्पिटल, जोधपुर के एमडीएम हॉस्पिटल और कोटा के न्यू मेडिकल कॉलेज हॉस्पिटल में कभी शॉर्ट सर्किट, कभी ऑक्सीजन पाइपलाइन लीकेज, तो कभी इलेक्ट्रिकल पैनल में आग लगने के मामले देखे गए हैं। कई बार सौभाग्य से बड़ी जनहानि नहीं हुई, लेकिन कुछ घटनाओं में मरीजों की जान भी गई है। ये भी पढ़ें - अपने राज्य / शहर की खबर अख़बार से पहले पढ़ने के लिए क्लिक करे
डा शर्मा ने कहा कि इन अस्पतालों की स्थिति में ढाँचागत लापरवाही सबसे बड़ा कारण बन रहा है।
राजस्थान के अधिकांश सरकारी अस्पताल पुराने भवनों में चल रहे हैं। इनमें से कई इमारतें 40-50 वर्ष पुरानी हैं जिनमें न तो आधुनिक फायर सिस्टम लगाए गए हैं, न ही इलेक्ट्रिकल वायरिंग समय-समय पर बदली जाती है। बिजली के तार खुले रहते हैं, पुराने स्विच बोर्ड में ओवरलोड रहता है,ओर ऑक्सीजन पाइपलाइन और इलेक्ट्रिक पैनल पास-पास लगे होते हैं।
यह स्थिति किसी भी समय हादसे को न्योता देती है। अस्पतालों में हजारों मरीज, तीमारदार और स्वास्थ्यकर्मी मौजूद रहते हैं, इसलिए एक छोटी सी चिंगारी भी बड़े विस्फोट में बदल सकती है। तकनीकी और सुरक्षा मानकों की अनदेखी भी मुख्य कारण है।
फायर सेफ्टी एक्ट 2009 और नेशनल बिल्डिंग कोड के अनुसार, अस्पतालों में फायर सेफ्टी उपकरणों का होना, इमरजेंसी एग्जिट, फायर अलार्म, स्मोक सेंसर और नियमित मॉक ड्रिल अनिवार्य हैं। लेकिन हकीकत में बहुत कम सरकारी अस्पताल इन नियमों का पालन करते हैं।
अधिकांश अस्पतालों के पास फायर एनओसी (No Objection Certificate) तक नहीं होती। कुछ अस्पतालों में फायर एक्सटिंग्विशर तो लगे होते हैं लेकिन या तो एक्सपायर हो चुके हैं या कभी उपयोग करना किसी को आता ही नहीं। फायर ड्रिल और प्रशिक्षण केवल कागजों में सीमित है। यह सब इस बात का प्रमाण है कि सुरक्षा मानकों को केवल औपचारिकता समझ लिया गया है।
अब सबसे बड़ा सवाल यह है कि इन घटनाओं के लिए जिम्मेदार कौन है? ऐसी घटनाओं की जवाबदारी कई स्तरों पर तय होती है। अस्पताल प्रशासन की पहली जिम्मेदारी होती है कि अस्पताल की सुरक्षा व्यवस्था की नियमित समीक्षा करे। लेकिन कई बार बजट या ध्यान की कमी के कारण ऐसे मुद्दों को नजरअंदाज कर दिया जाता है।
स्वास्थ्य विभाग को नियमित रूप से फायर सेफ्टी ऑडिट करवाना चाहिए। यदि अस्पतालों में एनओसी नहीं है तो उसे तत्काल निरस्त या सुधार के आदेश देने चाहिए। मगर यह कार्रवाई केवल हादसे के बाद होती है, पहले नहीं। इलेक्ट्रिकल फिटिंग, पाइपलाइन और मशीनरी का रखरखाव इंजीनियरिंग विभाग की जिम्मेदारी होती है। कई बार घटिया गुणवत्ता की वायरिंग या सस्ते उपकरणों के इस्तेमाल से आग की संभावना बढ़ जाती है।
फायर विभाग को समय-समय पर अस्पतालों का निरीक्षण कर रिपोर्ट देनी होती है। लेकिन निरीक्षण या तो कभी होता ही नहीं या सिर्फ कागजों में दिखाया जाता है।इन घटनाओं के पीछे एक और बड़ा कारण है भ्रष्टाचार और प्रशासनिक सुस्ती।फायर सेफ्टी के लिए बजट आवंटन तो होता है पर उपयोग नहीं होता, मेंटेनेंस कॉन्ट्रैक्ट सिर्फ नाम के लिए रहते हैं। जब तक जवाबदेही तय नहीं होगी और दोषियों पर कठोर कार्रवाई नहीं होगी, तब तक ऐसी घटनाएँ दोहराई जाती रहेंगी।
अस्पतालों में ऐसे हादसे रोकने हैं तो कुछ ठोस कदम सरकार ओर प्रशासन को अवश्य उठाने होंगे। सभी सरकारी अस्पतालों में फायर सेफ्टी ऑडिट अनिवार्य रूप से हर छह महीने में किया जाए। फायर एनओसी के बिना किसी अस्पताल को संचालित न किया जाए। हर अस्पताल में फायर अलार्म, स्मोक सेंसर, स्प्रिंकलर सिस्टम और इमरजेंसी एग्जिट हों।
संपूर्ण स्टाफ को फायर सुरक्षा प्रशिक्षण दिया जाए। पुरानी वायरिंग और उपकरणों को समय-समय पर बदला जाए। स्वतंत्र एजेंसी द्वारा निरीक्षण और रिपोर्ट पब्लिक डोमेन में रखी जाए। दोषियों पर कठोर दंड का प्रावधान हो, चाहे वह कोई भी अधिकारी क्यों न हो।
उन्होंने कहा कि राजस्थान की जनता को भी इस मुद्दे पर सजग रहना होगा। किसी भी अस्पताल में यदि सुरक्षा व्यवस्था कमजोर दिखे तो इसकी शिकायत स्थानीय प्रशासन और मीडिया ओर सोसल मीडिया तक पहुँचना आवश्यक है। नागरिकों की जागरूकता ही प्रशासन को जिम्मेदारी निभाने के लिए मजबूर कर सकती है।
राजस्थान में सरकारी अस्पतालों में आग की घटनाएँ केवल तकनीकी गलती नहीं बल्कि एक प्रशासनिक असफलता का परिणाम हैं। इन हादसों से सबसे ज्यादा नुकसान उन गरीब और मध्यम वर्गीय मरीजों को होता है जो निजी अस्पतालों का खर्च नहीं उठा सकते। अब वक्त आ गया है कि सरकार, प्रशासन और समाज मिलकर इस समस्या को गंभीरता से लें।
यदि हर अस्पताल में सुरक्षा व्यवस्था को सर्वोच्च प्राथमिकता दी जाए, नियमित जांच और जवाबदेही सुनिश्चित हो, तो आने वाले समय में ऐसे हादसों को पूरी तरह रोका जा सकता है। क्योंकि अस्पताल जीवन बचाने के लिए होते हैं, जीवन छीनने के लिए नहीं।
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