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स्वतंत्रता का अधूरा आलाप : आज़ादी केवल तिथि नहीं, एक निरंतर संघर्ष है

Incomplete dialogue about freedom: Freedom is not just a date, it is a continuous struggle - Hisar News in Hindi

15 अगस्त 1947 को हमने विदेशी शासन की बेड़ियों को तोड़ दिया था। तिरंगे की फहराती लहरों में वह रोमांच था, जो सदियों की गुलामी और अत्याचार के बाद जन्मा था। हर चेहरे पर एक ही उम्मीद थी—अब अपना देश अपनी मर्ज़ी से चलेगा, अब हर नागरिक को बराबरी का हक़ मिलेगा, अब हम अपने भविष्य के निर्माता होंगे। लेकिन आज़ादी के 78 साल बाद यह सवाल कचोटता है—क्या वह सपना पूरा हुआ? आज हम दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र हैं, हमारी अर्थव्यवस्था तेजी से आगे बढ़ रही है, विज्ञान और तकनीक में नए मुकाम हासिल हो रहे हैं। मेट्रो ट्रेन, डिजिटल पेमेंट, सैटेलाइट मिशन और वैश्विक मंच पर बढ़ता प्रभाव हमें गर्व से भर देता है। लेकिन इस चमक के पीछे एक सच छुपा है—हमारी आज़ादी अब भी अधूरी है। यह अधूरापन केवल गरीबी या बेरोज़गारी का नहीं, बल्कि सोच, व्यवस्था और व्यवहार में गहरे बैठी असमानताओं का है। हमारे यहां लोकतंत्र का मतलब अक्सर सिर्फ़ चुनाव रह गया है। हर पाँच साल में वोट डालने को ही हम अपनी भागीदारी मान लेते हैं, लेकिन उसके बाद नेता और जनता के बीच एक अदृश्य दूरी बन जाती है। जनता शिकायत करती है, सरकार सफ़ाई देती है, और इसी बहाने असली मुद्दे पीछे छूट जाते हैं। आज़ादी का असली मतलब यह है कि सत्ता का केंद्र नागरिक हो, और उसकी आवाज़ सिर्फ़ चुनावी भाषणों में नहीं, नीतियों और फैसलों में भी सुनी जाए। हम तकनीक के युग में जी रहे हैं। इंटरनेट और सोशल मीडिया ने बोलने की आज़ादी को अभूतपूर्व विस्तार दिया है। लेकिन इसी आज़ादी का दुरुपयोग भी बढ़ा है—झूठी खबरें, नफ़रत फैलाने वाले संदेश, और डिजिटल विभाजन ने समाज में नई खाइयाँ बना दी हैं।
आज़ादी तभी सार्थक है जब अभिव्यक्ति जिम्मेदारी के साथ हो, और डिजिटल स्पेस का इस्तेमाल जागरूकता और प्रगति के लिए किया जाए, न कि भड़काने और बांटने के लिए। आर्थिक मोर्चे पर भारत ने लंबी दूरी तय की है, लेकिन यह सफ़र सबके लिए एक जैसा नहीं रहा। एक ओर हम अरबपतियों की संख्या में दुनिया में आगे हैं, तो दूसरी ओर करोड़ों लोग अब भी रोज़गार, भोजन और इलाज के लिए संघर्ष कर रहे हैं। महानगरों की ऊँची-ऊँची इमारतों की छाया में झुग्गियों की ज़िंदगी किसी को दिखाई नहीं देती।
सच्ची आर्थिक स्वतंत्रता का मतलब है कि हर नागरिक को अपनी मेहनत के दम पर जीवन सुधारने का अवसर मिले, और बुनियादी जरूरतों के लिए वह किसी के रहम पर न हो। सामाजिक स्तर पर भी चुनौतियाँ कम नहीं हैं। जाति, धर्म और लिंग के आधार पर भेदभाव आज भी हमारे समाज में गहराई से मौजूद है। महिलाओं को शिक्षा, रोजगार और सुरक्षा में बराबरी का अधिकार कागजों पर है, लेकिन हकीकत में वे आज भी असमान अवसरों और हिंसा का सामना करती हैं। यह विडंबना है कि एक ओर हम मंगल पर पहुँचने की तैयारी कर रहे हैं, और दूसरी ओर लड़कियों की शिक्षा को बोझ समझने वाले विचार अब भी जिंदा हैं।
शिक्षा आज़ादी की असली नींव है। लेकिन हमारे यहां शिक्षा की गुणवत्ता और पहुंच दोनों में भारी असमानता है। महानगरों के निजी स्कूल और ग्रामीण इलाकों के जर्जर सरकारी स्कूल एक ही देश के हिस्से हैं, लेकिन दोनों की दुनिया अलग है। बिना मजबूत और समान शिक्षा व्यवस्था के हम एक जागरूक और सक्षम नागरिक समाज नहीं बना सकते, और बिना ऐसे समाज के लोकतंत्र भी मजबूत नहीं हो सकता। स्वास्थ्य के क्षेत्र में भी हालात चुनौतीपूर्ण हैं। कोविड-19 महामारी ने हमारी व्यवस्था की कमजोरियों को उजागर कर दिया। बड़े-बड़े अस्पताल शहरों में हैं, लेकिन छोटे कस्बों और गांवों में बुनियादी स्वास्थ्य सुविधाएं भी सपना हैं।
स्वतंत्रता का मतलब यह भी है कि कोई नागरिक इलाज की कमी से अपनी जान न गंवाए, और स्वास्थ्य सेवाएं केवल पैसे वालों के लिए न हों। आज के दौर की सबसे बड़ी चुनौती है—मानसिक गुलामी। हम में से कई लोग आज भी परंपराओं, अंधविश्वासों और पूर्वाग्रहों की जंजीरों में बंधे हैं। बदलाव को अपनाने के बजाय हम अक्सर उसे खतरा मान लेते हैं। असली आज़ादी तब होगी जब हम सोचने, सवाल पूछने और नई राह अपनाने से नहीं डरेंगे। पर्यावरण संकट भी हमारी स्वतंत्रता से जुड़ा हुआ मुद्दा है। अगर हवा, पानी और मिट्टी जहरीली होती जाएगी, तो नागरिक का स्वस्थ जीवन जीने का अधिकार भी खोखला हो जाएगा। विकास और पर्यावरण संतुलन के बीच सामंजस्य बैठाना आज के भारत के लिए अनिवार्य है।
स्वतंत्रता केवल अधिकार लेने का नाम नहीं, बल्कि कर्तव्य निभाने का भी है। हम ट्रैफ़िक सिग्नल तोड़ते हैं, टैक्स चोरी करते हैं, सफाई की अनदेखी करते हैं, और फिर भ्रष्टाचार व अव्यवस्था पर सवाल उठाते हैं। अगर नागरिक अपने कर्तव्य निभाने में ईमानदार नहीं होंगे, तो शासन भी ईमानदार नहीं हो सकता। भारत की ताकत उसकी विविधता है। लेकिन यही विविधता हमारे लिए खतरा भी बन सकती है, अगर हम एक-दूसरे को केवल जाति, धर्म या भाषा के चश्मे से देखें। आज के दौर में हमारी सबसे बड़ी जिम्मेदारी है कि हम एक-दूसरे की पहचान का सम्मान करें और मतभेदों को दुश्मनी में न बदलने दें।
अब वक्त है कि हम स्वतंत्रता को केवल ऐतिहासिक घटना की तरह न मनाएं, बल्कि इसे एक सतत जिम्मेदारी की तरह जिएं। यह जिम्मेदारी सिर्फ़ सरकार की नहीं, हर नागरिक की है। हमें राजनीति में पारदर्शिता, न्यायपालिका में स्वतंत्रता, मीडिया में निष्पक्षता और समाज में समानता सुनिश्चित करनी होगी। आज के भारत को ऐसी स्वतंत्रता चाहिए जिसमें हर बच्चा बिना डर और भेदभाव के स्कूल जाए, हर युवा को अपनी मेहनत के दम पर अवसर मिले, हर महिला सुरक्षित महसूस करे, हर बुज़ुर्ग को सम्मान और देखभाल मिले, और हर नागरिक अपने विचार स्वतंत्र रूप से व्यक्त कर सके। यही वह भारत होगा जिसके लिए हमारे पूर्वजों ने बलिदान दिया था।
राजनीतिक आज़ादी हमारी यात्रा की शुरुआत थी, लेकिन मंज़िल अभी बाकी है। जब तक हम असमानता, भेदभाव, गरीबी, और अज्ञानता को खत्म नहीं करेंगे, तब तक हमारी स्वतंत्रता का आलाप अधूरा ही रहेगा। इस अधूरेपन को पूरा करना हमारी पीढ़ी की सबसे बड़ी जिम्मेदारी है—क्योंकि आने वाले भारत की पहचान हमारे आज के फैसलों से तय होगी। जय हिंद!

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Web Title-Incomplete dialogue about freedom: Freedom is not just a date, it is a continuous struggle
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