चंडीगढ़। राजनीति की चालें हमेशा परदे के पीछे की सच्चाई को ढकने की कोशिश करती हैं। डेरा सच्चा सौदा के प्रमुख, गुरमीत सिंह उर्फ राम रहीम को फिर से चुनाव से ठीक पहले पैरोल मिलना महज़ एक संयोग नहीं है, बल्कि यह हमारी लोकतांत्रिक व्यवस्था के उन धूसर पक्षों का प्रमाण है जहां कानून की किताबों से ज्यादा ताकत राजनीति की चालों में निहित होती है। एक व्यक्ति, जो दुष्कर्म और हत्या जैसे संगीन अपराधों की सजा काट रहा है, चुनाव से पहले अचानक "फिर से आज़ाद" हो जाता है, और इसके पीछे का खेल हमेशा प्रश्नचिन्ह खड़ा करता है।
चार साल में 11 बार जेल से बाहर आने वाले राम रहीम के हर पैरोल के पीछे छिपा एक राजनीतिक समीकरण है। पैरोल पर छूट मिलना एक कानूनी अधिकार हो सकता है, लेकिन जब ये पैरोल चुनाव के समय बार-बार मिलती है, तब यह केवल कानून नहीं, बल्कि राजनीतिक मंशा का प्रतीक बन जाता है। क्या ये पैरोल इसलिए दी जा रही है ताकि राम रहीम अपने अनुयायियों को एक बार फिर लामबंद कर सके और उनके वोट एक विशेष पार्टी की झोली में डाल सके? ये भी पढ़ें - अपने राज्य / शहर की खबर अख़बार से पहले पढ़ने के लिए क्लिक करे
हरियाणा विधानसभा चुनाव के ठीक पहले राम रहीम को 20 दिन की सशर्त पैरोल मिलना, राजनीतिक संदर्भों से परे नहीं देखा जा सकता। जब आम नागरिकों को पैरोल पाने में तमाम मुश्किलों का सामना करना पड़ता है, तब एक सजायाफ्ता अपराधी को चुनाव के समय 'इमरजेंसी पैरोल' पर बाहर आना सिर्फ कानून के साथ खिलवाड़ ही नहीं, बल्कि लोकतंत्र की नींव पर हमला भी है। यह दर्शाता है कि हमारे सिस्टम में किस तरह से एक 'राजनीतिक हितधारक' कानून से ऊपर उठाकर देखा जाता है।
कानून का नहीं, राजनीति का खेल
पैरोल की मंजूरी किसी न्यायिक व्यवस्था के माध्यम से नहीं, बल्कि चुनाव आयोग के आदेश से हुई। क्या यह बताता है कि हमारी न्याय प्रणाली इतनी कमजोर हो गई है कि अब चुनाव आयोग तय करेगा कि कौन जेल से बाहर आएगा और कौन नहीं? इस पूरे प्रकरण में सरकार की भूमिका सवालों के घेरे में है। जब राम रहीम ने पहले भी 21 दिन की फरलो काटी, तब अचानक चुनाव से ठीक पहले फिर से इमरजेंसी पैरोल की क्या आवश्यकता थी?
यह न केवल प्रशासन की निष्क्रियता को उजागर करता है, बल्कि यह भी दिखाता है कि चुनावों के दौरान कानून और नैतिकता को ताक पर रख दिया जाता है। ऐसे में आम जनता को यह महसूस होता है कि उनके वोटों के सौदे चुनावी रणनीतिकारों की बिसात पर पहले ही किए जा चुके हैं।
आखिरकार, राम रहीम का बार-बार चुनावों से पहले बाहर आना केवल 'कानूनी प्रक्रिया' का हिस्सा नहीं, बल्कि राजनीति की उस गहरी साजिश का हिस्सा है, जिसे जनता के सामने जानबूझ कर अनदेखा किया जाता है।
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