प्रसन्ना ने अपने करियर के दौरान पांच साल क्रिकेट छोड़ दिया था। 1962 से
1967 के बीच वे क्रिकेट छोडक़र इंजीनियरिंग करने चले गए थे। इसके पीछे भी
प्रसन्ना ने अपने पिता को कारण बताया और कहा कि मैंने उनसे वादा किया था
उसे निभाने गया था। पांच साल के अंतराल पर भी प्रसन्ना का क्रिकेट को लेकर
जुनून कम नहीं हुआ था और उन्होंने 1967 में वापसी की थी।
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इस पर प्रसन्ना ने
कहा कि मुझे जब वेस्टइंडीज सीरीज के लिए चुना गया था तब मैंने अपने पिता
से कहा था कि मैं अपनी इंजीनियरिंग की पढ़ाई पूरी करूंगा और उन दिनों में
पढ़ाई को ज्यादा प्राथमिकता दी जाती थी। जब मैं वेस्टइंडीज से वापस आया तो
मैंने अपने पिता से किए गए वायदे को पूरा किया ताकि मैं अपनी तरह से अपनी
जिंदगी जी सकूं। इसलिए मुझे कुछ साल की कुर्बानी देनी पड़ी। लेकिन इसके बाद
भी वह जुनून नहीं गया और फिर मैंने वापस आकर क्रिकेट शुरू की और फिर मैं
भारतीय टीम में वापस आया।
प्रसन्ना को भारत के पूर्व कप्तान नबाव पटौदी का
पसंदीदा खिलाड़ी माना जाता था। पटौदी ने हमेशा प्रसन्ना को टीम में
प्राथमिकता दी। इस पर पूछने पर प्रसन्ना ने कहा, यह इसलिए था कि वो मेरी
सोच को समझते थे और मैं उनकी सोच को समझता था। इसलिए हम एक दूसरे के साथ
आसानी से काम कर सके। वे भी अटैक में विश्वास रखते थे और मैं भी। मैं मानता
था कि गेंदबाज को हमेशा विकेट लेने के लिए जाना चाहिए और वो भी कहते थे कि
मैं गेंदबाज को गेंद विकेट लेने के लिए देता हूं।
यह बहुत सहज बात थी।
प्रसन्ना से जब उनके पसंदीदा भारतीय बल्लेबाज के बारे में पूछा गया तो
उन्हें विजय मांजरेकर का नाम लिया और सुनील गावस्कर तथा गुणप्पा विश्वनाथ
को उनके दाएं-बाएं हाथ बताया। भारत के लिए 49 मैचों में 189 विकेट लेने
वाले प्रसन्ना ने कहा कि मुझे लगता है कि विजय मांजरेकर मेरी नजर में भारत
के महान बल्लेबाज हैं।
मैंने उन्हें 60 के दशक की शुरुआत में गेंदबाजी की
थी। इसके बाद मैंने गावस्कर और विश्वनाथ को गेंदबाजी की और मैं सिर्फ यह कह
सकता हूं कि विश्वनाथ और गावस्कर, विजय मांजरेकर के दाएं और बाएं हाथ थे।
प्रसन्ना को 1970 में भारत सरकार ने पद्मश्री पुरस्कार से भी नवाजा था।
(IANS)
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