पटेल आंदोलन की उठी आंधी में यह तय माना जा रहा था कि आनंदी बेन पटेल के बजाय किसी पटेल चेहरे को ही मुख्यमंत्री की कुर्सी दी जाएगी। किसी को आश्चर्य भी नहीं हुआ, जब नितिन पटेल का नाम तेजी से उभरकर सामने आया। नितिन पटेल खुद भी आश्वस्त थे कि राज्य की बागडोर उन्हीं को मिलने वाली है। इसी आत्मविश्वास और मीडिया रिपोर्टों से लवरेज नितिन पटेल शुक्रवार को दिनभर टीवी चैनलों पर गुजरात के भावी मुख्यमंत्री के रूप में इंटरव्यू देते रहे और टीवी चैनलों पर इस नई जिम्मेदारी की बधाई भी ले ली। उन्होंने बाकायदा नरेंद्र मोदी विजन और अमित शाह के नेतृत्व की तारीफों के पुल भी बांध दिए। मगर शाम होते होते सारा खेल उलट गया। तमाम चैनल और पत्रकार जो नितिन पटेल को भावी मुख्यमंत्री मान चुके थे, उनके लिए चौंकाने वाली खबर आ गई।
भाजपा ने गैर-पाटीदार चेहरे विजय रूपानी को आनंदीबेन पटेल के बदले मोदी की
धरोहर सौंप दी। हालांकि यह ज्यादा चौकाने वाला नहीं था, क्योंकि रूपानी
पहले से ही दौड़ माने जा रहे थे। लेकिन सरकार में नंबर दो की हैसियत रखने
वाले नितिन पटे का पहले बधाइयों को स्वीकार कर लेना और फिर रूपानी का आना
जरूर चौंकाने वाला है। ऐसा पहले भी हो चुका है, जब नेताओं ने उत्साह में
औपचारिक घोषणा के पहले ही मीडिया की पधाइयां स्वीकार कर ली हो और फिर बाद
में पार्टी और नेता, दोनों की किरकिरी हुई हो।
भारतीय जनता पार्टी पर
नजर रखने वाले विश्लेषक इससे कतई हैरान नहीं थे। वह इसलिए, क्योंकि
उन्होंने देखा कि हरियाणा और झारखंड में क्या हुआ था। जहां जाट बहुल
हरियाणा में किसी जाट को मुख्यमंत्री नहीं बनाते हुए मनोहरलाल खट्टर को ताज
पहना दिया गया, वहीं आदिवासी बहुल झारखंड को भारतीय जनता पार्टी ने
रघुबरदास के रूप में पहला गैर आदिवासी मुख्यमंत्री दे दिया। भाजपा ने इस
फैसले पर काफी सोच-विचार के बाद मुहर लगाई है।
राजनीतिक मामलों के जानकारों
का कहना है कि दरअसल यह भारतीय जनता पार्टी के अध्यक्ष अमित शाह के काम
करने का तरीका है। झारखंड और हरियाणा के बारे में कहा जाता है कि इन
राज्यों के फैसले दिल्ली में ही ज्यादा होते हैं। वैसे इस मामले में नितिन
पटेल थोड़ा खुशकिस्मत रहे। यह उनका व्यक्तित्व कम और उनके समाज के प्रभाव
की वजह से ज्यादा हुआ कि वह कम से कम उपमुख्यमंत्री तो बनाए गए। पटेल चेहरे
को सामने रखने के बजाय सामने रखा गया चेहरा रूपानी जैन धर्म से आते हैं।
मतदाताओं के गणित के हिसाब से उनकी हैसियत सिफर है, मगर रूपानी प्रभावशाली
व्यक्ति रहे हैं और इसकी सबूत यह है कि वह एक पद एक व्यक्ति की नीति का
अपवाद बने रहे और मंत्री के साथ साथ पार्टी अध्यक्ष भी बने रहे।
हालिया
घटनाक्रम से गुजरात की राजनीति ने एक नई करवट ले ली है। यह बात साफ है कि
जैन-बनिया समाज के मुख्यमंत्री और पटेल उपमुख्यमंत्री बनाकर भारतीय जनता
पार्टी आने वाले विधानसभा चुनावों से पहले ही जातिगत समीकरणों को ‘बैलेंस’
करने की कोशिश कर रही है।
पटेल राजनीति का दबदबा
गुजरात में
पटेलों का राजनीतिक दबदबा हमेशा से ही रहा है और उनके दबदबे की वजह से ही
कांग्रेस और भारतीय जनता पार्टी सत्ता पर काबिज होते रहे हैं। इसका अंदाजा
इसी बात से लगाया जा सकता है कि 1960 में गुजरात के अलग राज्य बनने के बाद
से यहां की राजनीति में पटेल ही हावी रहे और ज्यादातर मुख्यमंत्री भी इसी
समाज से रहे। चाहे वह चिमनभाई पटेल हों जो दो बार मुख्यमंत्री रहे या फिर
बाबूभाई जसभाई पटेल हों, जो आपातकाल के दौरान मुख्यमंत्री थे। केशूभाई पटेल
या फिर आनंदीबेन पटेल भी इसी कड़ी के हिस्सा थे।
समाजशास्त्री घनश्याम
शाह के मुताबिक, 1970 के दशक से पटेल समाज के लोगों ने कांग्रेस से किनारा
इसलिए करना शुरू कर दिया था, क्योंकि कांग्रेस एक दूसरे राजनीतिक समीकरण को
लेकर आगे चल रही थी जिसमें अन्य पिछड़ा वर्ग यानी ओबीसी और मुसलमान शामिल
थे। 1980 के दशक में पटेल पहले जनता पार्टी के साथ जुड़े। बाद में भाजपा
बनने के बाद उनका वर्चस्व भाजपा में भी बढ़ा।
पटेलों की अनदेखी नहीं
राजनीतिक
मामलों के जानकार अच्युत याग्निक कहते हैं नितिन पटेल को नयी सरकार में
महत्वपूर्ण जिम्मेदारी देकर भारतीय जनता पार्टी ने पटेलों को यह संदेश देने
की कोशिश की है कि वह पटेलों की अनदेखी नहीं कर रही है। अच्युत याग्निक का
यह भी मानना है कि पटेलों के समर्थन की वजह से ही गुजरात में भारतीय जनता
पार्टी का शासन वर्ष 1995 से ही चल रहा है। गुजरात में पटेल 15 प्रतिशत हैं
जबकि दलित 7 प्रतिशत।
हार्दिक के आंदोलन से हुआ नुकसान
जानकार
मानते हैं कि हार्दिक पटेल द्वारा आरक्षण के लिए चलाए गए आंदोलन से भाजपा
को झटका जरूर लगा है और यह सामने नजर भी आ रहा है। पिछले साल दिसंबर में
शहरी निकाय के चुनावों में भाजपा को ग्रामीण क्षेत्रों में नुकसान हुआ था,
हालांकि शहरी इलाकों में भाजपा की स्थिति उतनी खराब नहीं हुई, मगर ये
ग्रामीण क्षेत्र विधानसभा चुनावों में भाजपा का गणित बिगाड़ सकते हैं।
इधर,
गौरक्षक दल के दलितों पर हमले के बाद शुरू हुए आंदोलन ने गुजरात में खासी
हलचल पैदा कर दी है। पटेल नाराज, दलित भी और 15 प्रतिशत आदिवासी भी अपनी
राजनीतिक अनदेखी से ज्यादा खुश नहीं नजर आ रहे हैं।
मौजूदा हालात में अगर
10 प्रतिशत मुसलमान, आदिवासी और दलित साथ आ जाते हैं तो आने वाले विधानसभा
के चुनावों में भारतीय जनता पार्टी के लिए मुश्किलें बढ़ सकती हैं।
यही
कारण है कि भारतीय जनता पार्टी नहीं चाहेगी कि पटेलों के बीच उसकी बनी बनाई
पैठ पर असर पड़े। साथ ही वह सवर्णों और अत्यंत पिछड़े वर्ग को भी साथ लेकर
चलना चाहती है। जानकारों को लगता है कि ऐसे में पटेल समाज का
उपमुख्यमंत्री इस समाज में पार्टी के आधार को बनाये रखने में काफी कारगर
साबित हो सकता है। अब देखना है कि अमित शाह का यह नया दांव पटेलों को कितना
बांधे रख पाता है और अन्य जातीय समीकरणों को साध पाता है?