ऋषि चिंतन: दैनंदिन जीवन का अनिवार्य अंग बने स्वाध्याय

www.khaskhabar.com | Published : गुरुवार, 02 फ़रवरी 2023, 10:04 AM (IST)

वातावरण का मनुष्य पर प्रभाव पड़ता है । आज के वातावरण में स्वार्थपरता, वासना, विलासिता, तृष्णा, उच्छृंखलता की मनोवृतियाँ बुरी तरह संव्याप्त हैं। इन्हीं से प्रेरित होकर लोगों की विभिन्न गतिविधियाँ संचालित होती हैं। लोग बाहर से आदर्शवादिता की बातें करते हैं, पर उनके क्रियाकलाप में उपरोक्त तत्व ही घुले रहते हैं। बेईमानी और धूर्तता का सहारा लेकर सांसारिक वैभव उपार्जन करने वाले लोगों के उदाहरण चारों ओर भरे पड़े हैं।

यह सारे का सारा वातावरण मूल रूप से मनुष्य को यही उपदेश करता है कि शीघ्र उन्नति करनी है, मौज-मजा के अधिक साधन उपलब्ध करने हों तो उचित अनुचित का अंतर करने के झंझट में ना पडक़र जैसे बने वैसे अपना स्वार्थ सिद्ध करना चाहिए। आज के वातावरण की मूल रूप से यही शिक्षा है और यह शिक्षा हर दुर्बल मन:स्थिति के व्यक्ति को प्रभावित भी करती है। फलस्वरूप जनसाधारण की रूचि अकर्म और कुकर्म करने की ओर बढ़ती चली जाती है । असुरता को दिन-दिन बढ़ते और देवत्व को दिन-दिन क्षीण होते हम भली प्रकार देख सकते हैं ।

आम लोग इस पतन प्रवाह में ही बहने लगते हैं। उनकी देखा-देखी दुर्बल मन व्यक्ति भी अनुकरण करते हैं। विवेक उनकी उपयोगिता पर संदेह तो उत्पन्न करता है पर समर्थन न मिलने से चुप ही बैठना पड़ता है और जो ढर्रा चल रहा है उसी के प्रवाह में लुढक़ना पड़ता है।

इस कुचक्र को कैसे रोका जाए? इस प्रश्न पर गंभीरतापूर्वक विचार करने से एक ही निष्कर्ष निकलता है कि सर्वसाधारण के मस्तिष्क को पतन की ओर आकर्षित करने वाले प्रशिक्षण की तुलना में ठीक उतना ही प्रबल प्रतिरोधी वातावरण ऐसा तैयार किया जाए जो जनमानस में असुरता की विभीषिकाओं और देवत्व की शुभ संभावनाओं का प्रभाव उत्पन्न कर सके।

यह कार्य स्वाध्याय की व्यापक सर्वांग पूर्ण व्यवस्था करके संपन्न किया जा सकता है। वर्तमान का काम इतिहास से चलाया जा सकता है और कुशिक्षा देने वाले वर्तमान व्यक्तियों के मुकाबले दूरस्थ अथवा दिवंगत महापुरुषों की विचार पद्धति सामने खड़ी की जा सकती है। स्वाध्याय इसी प्रक्रिया का नाम है। संसार में ऐसे उत्कृष्ट व्यक्तित्व हैं अथवा हो चुके हैं जिनकी ओजस्वी विचारधारा बड़ी समर्थ और सारगर्भित है, उसे सुनने का अवसर मिलता रहे तो वर्तमान दुर्बुद्धि पूर्ण शिक्षा की काट हो सकती है। इसी प्रकार दूरस्थ अथवा दिवंगत सन्मार्गगामी सज्जनों के महान चरित्र आँखों के सामने प्रस्तुत होते रहे तो भी वर्तमान दुरात्माओं के भ्रष्ट अनुकरण से बचने की हिम्मत जाग सकती है । प्रत्यक्ष न सही परोक्ष रूप से मस्तिष्क के सम्मुख प्रेरक प्रशिक्षण एवं घटनात्मक विवरण प्रस्तुत किया जा सके तो भी पतन के प्रभाव को रोकने में बहुत सहायता मिल सकती है। स्वाध्याय इसी महती आवश्यकता को पूर्ण करता है। स्वाध्याय ज्ञान-योग का अविच्छिन्न अंग है।

उपरोक्त प्रवचन पंडित श्रीराम शर्मा आचार्य द्वारा लिखित पुस्तक महाकाल और युग प्रत्यावर्तन प्रक्रिया, पृष्ठ-117 से लिया गया है।

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