स्वयं के गुणों को विकसित करने से महानता की मंजिल पाता है व्यक्ति—पूज्य गुरुदेव

www.khaskhabar.com | Published : रविवार, 29 जनवरी 2023, 1:41 PM (IST)

अपने में जो थोड़ी बहुत गुणों की पूँजी है, इसी पर प्रसन्नता अनुभव करें, उसे विकसित करें तो मनुष्य एक दिन महानता की मंजिल तक पहुँच जाता है। विचारों के अनुसार ही चेष्टाएँ जागृत होती हैं। सत्कर्मों के विस्तार से आत्मा विकसित होती है, आत्मविकास से स्वर्गीय सुख की रसानुभूति होती है। पुण्य को प्रोत्साहन और पाप की उपेक्षा आत्मानुभूति के सदुद्देश्य से प्रेरित है । अध्यात्म की पहली शिक्षा यह है कि मनुष्य निरंतर मंगलमय कामनाएँ करें और सदाचारी बने । यह तभी संभव है जब सत्प्रवृत्तियों को प्रोत्साहन मिले।

किसी भी व्यवस्था से मनुष्य की आंतरिक पवित्रता का पूर्णतया नाश नहीं होता । वह अज्ञान के अंधेरे में ढँकी सी रहती है। जैसे अग्नि को राख ढक लेती है, वैसे ही दुष्कर्म की मलिनता में यह आंतरिक निर्मलता दबी रहती है। इस पवित्रता को पुन: जागृत करने के लिए प्रशंसा और प्रोत्साहन की आवश्यकता होती है। आत्मनिरीक्षण द्वारा अपनी शक्ति, श्रद्धा और विश्वास को जगाएँ और प्रेरणा प्रोत्साहन देकर दूसरों की पवित्रता पुनर्जीवित करने में सहयोग दें तो इसे महान शुभकर्म मानना पड़ेगा। सामाजिक सुव्यवस्था की नीति यही है कि सब मिलजुल कर एक दूसरे को महानता की ओर अग्रसर करने में सहयोग दें। यह कार्य सद्विचारों और सत्कर्मों द्वारा सहज ही में पूरा हो जाता है।

मानव जीवन की सार्थकता के लिए विचार पवित्रता अनिवार्य है; मात्र ज्ञान-भक्ति और पूजा से मनुष्य का विकास एवं उत्थान नहीं हो सकता । पूजा-भक्ति और ज्ञान की उच्चता व श्रेष्ठता का व्यवहारिक रुप से प्रमाण देना पड़ता है। जिसके विचार गंदे होते हैं, उससे सभी घृणा करते हैं। जो वातावरण गंदा है, वहाँ जाने से सभी को झिझक होती है । शरीर गंदा रहे तो स्वस्थ रहना जिस प्रकार संभव नहीं, उसी प्रकार मानसिक पवित्रता के अभाव में सज्जनता, प्रेम और सद्व्यवहार के भाव नहीं उठ सकते । आचार-विचार की पवित्रता से ही व्यक्ति का सम्मान व प्रतिष्ठा होती है।
सतोगुणी विचारों से प्रेरित मनुष्य का खान-पान, रहन-सहन, वेशभूषा भी पवित्र होती है।

मन वचन कर्म में सर्वत्र सुचिता के दर्शन होते हैं। ऐसा व्यक्ति सभी के हित व कल्याण की बात सोचता है। सभी की भलाई में अपनी भलाई मानता है । इससे दैवी संपत्तियों का विस्तार होता है और सुख की परिस्थितियाँ बढऩे लगती है । पूर्व काल में लोग अधिक सुखी थे, इसका कारण लोगों के आचार-विचार में पर्याप्त पवित्रता थी, अनैतिक कर्मों के बाहुल्य के कारण इस समय दु:खों का बाहुल्य हो रहा है। समय सदा एक सा रहता है, किंतु आचरण और विचारों की भिन्नता के फलस्वरूप एक समय की परिस्थितियाँ सुखद बन जाती हैं और इसके प्रतिकूल परिस्थितियाँ कष्टदायक रहती हैं ।

आत्मा की दृष्टि से संसार के संपूर्ण प्राणी एक समान हैं । शरीर, धन, मान, पद और प्रतिष्ठा की बहूरूपता आत्मगत नहीं होती है । इस दृष्टि से ऊँच-नीच, वर्णभेद, छोटे बड़े बलवान धनी या निर्धन का कोई भेदभाव नहीं उठता। परमात्मा के दरबार में सब एक समान है, कोई ऊँच-नीच, छोटा-बड़ा, राजा या फकीर नहीं है, जो यह समझता है सबके साथ सदैव अच्छी भावनाएँ रखता है वही सच्चा अध्यात्मवादी है ।

उपरोक्त प्रवचन पंडित श्रीराम शर्मा आचार्य द्वारा लिखित पुस्तक हम बदलें तो दुनिया बदले के पृष्ठ 159 से लिया गया है।

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