पीढ़ी के अंतर को संवेदनशील तरीके से पेश करती है फिल्म 'जून'

www.khaskhabar.com | Published : मंगलवार, 29 जून 2021, 5:48 PM (IST)

कलाकार : नेहा पेंडसे, सिद्धार्थ मेनन, सौरभ पचौरी, नीलेश दिवेकर, किरण करमारकर
निर्देशन : सुहरुद गोडबोले और वैभव खिश्ती
रेटिंग : थ्री स्टार (तीन सितारे)


सुहरुद गोडबोले और वैभव खिश्ती की फिल्म काफी ²ढ़ता के साथ अपना संदेश व्यक्त करती है। इसकी स्क्रिप्ट बदमाशी, किशोरावस्था में पैदा होने वाले भ्रम, खुद को नुकसान पहुंचाने और आत्महत्या जैसे मुद्दों पर केंद्रित है । साथ ही, इसकी कहानी लिंगवाद और पीढ़ी के अंतर जैसे व्यापक मुद्दों को भी छूती है।

कहानी इस तरीके से बुनी गई है कि दर्शक बिना अपना फोकस खोए डेढ़ घंटे से अधिक अच्छा समय बिताएंगे, जो कि एक सराहनीय तथ्य है। हालांकि कुछ स्थितियां और पात्र एकआयामी या एकतरफा लग सकते हैं।

निखिल महाजन की स्क्रिप्ट इसलिए भी प्रासंगिक प्रतीत हो रही है, क्योंकि यह औरंगाबाद के छोटे से शहर पर आधारित है। संस्कृति और मानसिकता को लेकर काफी मतभिन्नता होने के कारण महानगरों की तुलना में भारत के छोटे शहरों में इस आयु वर्ग के युवाओं में असुरक्षा, अनिश्चितता और आक्रोश अक्सर अधिक तीव्र हो सकता है।

कहानी औरंगाबाद हाउसिंग सोसाइटी से शुरू होती और एक युवा लड़की नेहा (नेहा पेंडसे) पुणे से सोसायटी के एक फ्लैट में रहने के लिए आती हैं। चूंकि नेहा अपनी मर्जी से एक जिंदादिल जिंदगी जीती है, इसलिए उसे समाज से सुनने को भी मिलता है। जैसे ही वह सोसायटी में आती हैं तो इसके अध्यक्ष अधेड़ उम्र के जायसवाल (नीलेश दिवेकर) कहते हैं कि महिलाओं को सोसायटी परिसर में सार्वजनिक रूप से धूम्रपान करने की अनुमति नहीं है।

हालांकि कहानी निश्चित रूप से नेहा के रूढ़िवाद के साथ संघर्ष के बारे में नहीं है, क्योंकि उस पर जायसवाल ने टिप्पणी की, मगर यह तो आगे एक दिलचस्प कथानक के साथ शुरू होती है। फिल्म मुख्य रूप से ध्यान उस समय खींचती है, जब नील (सिद्धार्थ मेनन) ने नेहा के सोसायटी आने पर उसके फ्लैट के स्थान के बारे में अस्पष्ट तरीके से रास्ता बताया, जिससे वह भ्रमित हो गई।

इसके आगे जैसे ही हम नील की दुनिया में कदम रखते हैं, तो हमें पता चलता है कि वह गुस्से में और उदासी भरी जिंदगी जी रहा है। वो अपने हॉस्टल रूममेट की आत्महत्या की वजह से काफी परेशान है, जिसके लिए वह खुद को एक तरह से जिम्मेदार मानता है। इसके साथ ही उसकी अपने पिता के साथ भी लगातार अनबन रहती है, जो पड़ोसियों से छुपा रहा है कि वह इंजीनियरिंग की परीक्षा में फेल हो गया है।

महाजन का लेखन बड़ा शानदार रहा है। जिस तरह से उनके लेखन ने नील की अंधेरी दुनिया को पर्दे पर दिखाया है, वह लाजवाब है।

नेहा के आ जाने से निराश युवा लड़के को एक साथी मिल जाता है, जिससे वह बात कर सकता है। पटकथा नेहा को खुद का एक सबटेक्स्ट देती है, जो उपयुक्त रूप से एक अंतधार्रा कहानी के रूप में चलती है, लेकिन मूल कथानक से कभी विचलित नहीं होती है।

फिल्म नेहा और नील के साथ एक महत्वपूर्ण तीसरे किरदार के रूप में छोटे शहर के सेट-अप का उपयोग करती है। फिल्म में सिर्फ जायसवाल ही नहीं है, जो चाहता है कि उसके आसपास रहने वाले लोग उन बातों और चीजों का पालन करें, जिसे वह मानता है कि जीवन में यही नैतिक आचार संहिता है, बल्कि हम नील के पिता (किरण करमारकर) को भी इसी भूमिका में देखते हैं। नील के पिता को भी छोटे शहर की मानसिकता के साथ दिखाया गया है और वह अपने बेटे को अपनी तरह से ही कंट्रोल करने की कोशिश करता है, यही वजह है कि पिता-पुत्र की आपस में नहीं बनती है। हमें फिल्म में उम्र और पीढ़ी का अंतर स्पष्ट तौर पर दिखाया गया है।


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फिल्म में कामुकता को लेकर भी छोटे शहर की मानसिकता को करीब से दिखाया गया है। नील की प्रेमिका अपने पिता के रेजर से अपने अनचाहे बाल काटने की कोशिश करती है और इस दौरान उसे कट लग जाता है और वह खुद को नुकसान पहुंचा लेती है, क्योंकि नील ने उसे कहा था कि वह एक भालू की तरह है और वह उसके साथ यौन संबंध रखने के विचार से नफरत करता है।

इसके अलावा सेक्स और अंतरंग होने जैसे विषय पर एक और संकोच से भरी प्रतिक्रिया देखने को मिलती है, जब नील के सबसे अच्छा दोस्त प्रीतेश (सौरभ पचौरी) को एक लड़की उसे चूमने के लिए कहती है। इस ²श्य में प्रीतेश लज्जा महसूस करता हुआ दिखाई देता है। इस तरह के ²श्य फिल्म में भावनाओं को उच्च स्तर पर उजागर करते हुए प्रतीत होते हैं, जो कि कहानी को जीवंत बना देते हैं।

इसके साथ ही फिल्म में कुछ खामियां भी देखी जा सकती है। कुछ नायक (जायसवाल के दिमाग में आते हैं) को कोई आर्क नहीं मिलता है और वे काले और सफेद चरित्र चित्रण के दायरे में आते हैं। नील के पिता के मामले में, अंत में उसका हृदय परिवर्तन बहुत अचानक और फिल्मी लगता है। फिल्म का समग्र उदास मिजाज हो सकता है सभी को ठीक न लगे, हालांकि पटकथा के लिहाज से यह आवश्यक भी था। मगर कुछ के लिए यह असुविधाजनक हो सकता है, मगर इसमें कई क्षण भावुकता और राहत भरे भी देखने को मिलते हैं।

कुल मिलाकर फिल्म जून, जो भी कहती है, वह प्रासंगिक जरूर लगता है। मजबूत कलाकारों द्वारा संचालित, यह फिल्म भारत में ओटीटी संस्कृति के उदय से प्रेरित आत्मनिरीक्षण सिनेमा की एक नई लहर का प्रतिनिधित्व करती है, जो कि ऐसी बातचीत शुरू करने में संकोच नहीं करती है, जिसे कुछ समय पहले भी वर्जित समझा जाता था। (आईएएनएस)