हिन्दू पंचांग के अनुसार करवा चौथ कार्तिक कृष्ण पक्ष की चतुर्थी तिथि को पड़ता है। इस साल करवा चौथ का व्रत 17 अक्टूबर यानी (गुरूवार) को मनाया जाएगा। करवा चौथ का व्रत सुहागिन महिलाओं के लिए सर्वाधिक महत्वपूर्ण होता है और इस व्रत का महिलाओं को सालभर इंतजार रहता है। महिलाएं इस दिन निर्जला व्रत रखकर पति की दीर्घायु की कामना करती हैं।
बता दें कि करवा चौथ का व्रत सुबह सूर्योदय से शुरू होता है और शाम को चांद निकलने तक रखा जाता है। सूर्यास्त के बाद जब चांद निकल जाता है तब चंद्र को अर्घ्य देकर व्रती अपना व्रत खोलती हैं। करवा चौथ व्रत में मुख्य रूप से शिव-पार्वती, गणेश, कार्तिकेय और चंद्रमा की पूजा की जाती है।
करवा का अर्थ है मिट्टी का पात्र और चौथ का अर्थ चतुर्थी का दिन। इस दिन शादीशुदा महिलाएं नया करवा खरीदकर लाती हैं। करवा चौथ के दिन महिलाएं सूर्योदय से पहले जागकर सरगी खाकर व्रत की शुरुआत करती हैं। उसके बाद महिलाएं पूरे दिन निर्जला व्रत रखती हैं। शाम को चंद्रमा के दर्शन करके अर्घ्य अर्पित करने के बाद पति के हाथ से पानी पीकर महिलाएं अपना व्रत खोलती हैं।
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करवा चौथ को ग्रहाें की स्थिति
चंद्रमा और
बृहस्पति का दृष्टि संबंध होने से गजकेसरी नाम का राजयोग बनता है।
ज्योतिषों के अनुसार ग्रहों की ऐसी स्थिति पिछले साल भी बनी थी, मगर बुध और
केतु की वजह से चंद्रमा के पीड़ित होने से राजयोग भंग हो गया था, परन्तु
इस साल ऐसा नहीं है। बृहस्पति के अलावा चंद्रमा पर किसी भी अन्य ग्रह की
दृष्टि नहीं पड़ने से पूर्ण राजयोग बन रहा है। इससे पहले 12 अक्टूबर 1995
को करवा चौथ पर पूर्ण राजयोग बना था। वहीं बृहस्पति और चंद्रमा का दृष्टि
संबंध 2007 में भी बना था लेकिन शनि की वक्र दृष्टि के कारण चंद्रमा के
पीड़ित होने से राजयोग भंग हो गया था।
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द्रौपदी की कहानी
करवा चौथ का व्रत
महाभारत काल से भी पहले से चलता आ रहा है। द्रौपदी द्वारा भी ‘करवा चौथ’
का व्रत रखा गया था। मान्यता है कि एक कथा के अनुसार, जब अर्जुन नीलगिरि
की पहाड़ियों में घोर तपस्या और ज्ञान प्राप्ति के लिए गए हुए थे तो बाकी
चारों पांडवों को पीछे से अनेक गंभीर समस्याओं का सामना करना पड़ रहा था।
द्रौपदी
ने श्रीकृष्ण से मिलकर उन्हें सारी स्थिति बताई व अपने पतियों के
मान-सम्मान की रक्षा के लिए कोई आसान सा उपाय बताने को कहा। तब श्रीकृष्ण
ने द्रौपदी को ‘करवा चौथ’ का व्रत रखने की सलाह दी थी। जिसे करने से अर्जुन
भी सकुशल लौट आए व बाकी पांडवों के भी सम्मान की रक्षा हो सकी।
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सावित्री की कथा
सावित्री
प्रसिद्ध तत्त्वज्ञानी राजर्षि अश्वपति की एकमात्र कन्या थी। अपने वर की
खोज में जाते समय उसने निर्वासित और वनवासी राजा द्युमत्सेन के पुत्र
सत्यवान् को पतिरूप में स्वीकार कर लिया। जब देवर्षि नारद ने उनसे कहा कि
सत्यवान् की आयु केवल एक वर्ष की ही शेष है तो सावित्री ने बडी दृढता के
साथ कहा- जो कुछ होना था सो तो हो चुका। माता-पिता ने भी बहुत समझाया,
परन्तु सती अपने धर्म से नहीं डिगी!
सावित्री का सत्यवान् के साथ
विवाह हो गया। सत्यवान् बडे धर्मात्मा, माता-पिता के भक्त एवं सुशील थे।
सावित्री राजमहल छोडकर जंगल की कुटिया में आ गयी। आते ही उसने सारे
वस्त्राभूषणों को त्यागकर सास-ससुर और पति जैसे वल्कल के वस्त्र पहनते थे
वैसे ही पहन लिये और अपना सारा समय अपने अन्धे सास-ससुर की सेवा में बिताने
लगी। सत्यवान् की मृत्यु का दिन निकट आ पहुँचा।
सत्यवान्
अगिन्होत्र के लिये जंगल में लकडियाँ काटने जाया करते थे। आज सत्यवान् के
महाप्रयाण का दिन है। सावित्री चिन्तित हो रही है। सत्यवान् कुल्हाडी उठाकर
जंगल की तरफ लकडियाँ काटने चले। सावित्री ने भी साथ चलने के लिये अत्यन्त
आग्रह किया। सत्यवान् की स्वीकृति पाकर और सास-ससुर से आज्ञा लेकर सावित्री
भी पति के साथ वन में गयी। सत्यवान लकडियाँ काटने वृक्षपर चढे, परन्तु
तुरंत ही उन्हें चक्कर आने लगा और वे कुल्हाडी फेंककर नीचे उतर आये। पति का
सिर अपनी गोद में रखकर सावित्री उन्हें अपने आंचल से हवा करने लगी।
थोडी
देर में ही उसने भैंसे पर चढे हुए, काले रंग के सुन्दर अंगोंवाले, हाथ में
फाँसी की डोरी लिये हुए, सूर्य के समान तेजवाले एक भयंकर देव-पुरुष को
देखा। उसने सत्यवान् के शरीर से फाँसी की डोरी में बँधे हुए अँगूठे के
बराबर पुरुष को बलपूर्वक खींच लिया। सावित्री ने अत्यन्त व्याकुल होकर आर्त
स्वर में पूछा- हे देव! आप कौन हैं और मेरे इन हृदयधन को कहाँ ले जा रहे
हैं? उस पुरुष ने उत्तर दिया- हे तपस्विनी! तुम पतिव्रता हो, अत: मैं
तुम्हें बताता हूँ कि मैं यम हूँ और आज तुम्हारे पति सत्यवान् की आयु क्षीण
हो गयी है, अत: मैं उसे बाँधकर ले जा रहा हूँ। तुम्हारे सतीत्व के तेज के
सामने मेरे दूत नहीं आ सके, इसलिये मैं स्वयं आया हूँ। यह कहकर यमराज
दक्षिण दिशा की तरफ चल पडे।
सावित्री भी यम के पीछे-पीछे जाने लगी।
यम ने बहुत मना किया। सावित्री ने कहा- जहाँ मेरे पतिदेव जाते हैं वहाँ
मुझे जाना ही चाहिये। यह सनातन धर्म है। यम बार-बार मना करते रहे, परन्तु
सावित्री पीछे-पीछे चलती गयी। उसकी इस दृढ निष्ठा और पातिव्रतधर्म से
प्रसन्न होकर यम ने एक-एक करके वररूप में सावित्री के अन्धे सास-ससुर को
आँखें दीं, खोया हुआ राज्य दिया, उसके पिता को सौ पुत्र दिये और सावित्री
को लौट जाने को कहा। परन्तु सावित्री के प्राण तो यमराज लिये जा रहे थे, वह
लौटती कैसे? यमराज ने फिर कहा कि सत्यवान् को छोडकर चाहे जो माँग लो,
सावित्री ने कहा-यदि आप प्रसन्न हैं तो मुझे सत्यवान् से सौ पुत्र प्रदान
करें। यम ने बिना ही सोचे प्रसन्न मन से तथास्तु कह दिया। वचनबद्ध यमराज
आगे बढे। सावित्री ने कहा- मेरे पति को आप लिये जा रहे हैं और मुझे सौ
पुत्रों का वर दिये जा रहे हैं। यह कैसे सम्भव है? मैं पति के बिना सुख,
स्वर्ग और लक्ष्मी, किसी की भी कामना नहीं करती। बिना पति मैं जिना भी नहीं
चाहती।
वचनबद्ध यमराज ने सत्यवान् के सूक्ष्म शरीर को पाशमुक्त
करके सावित्री को लौटा दिया और सत्यवान् को चार सौ वर्ष की नवीन आयु प्रदान
की।
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