अक्सर शादी में
दूल्हा, दुल्हन के घर बारात लेकर जाता है लेकिन एक ऐसी जाति भी जहां दुल्हन
न केवल दूल्हे के घर बारात लेकर जाती है बल्कि दूल्हे से दहेज भी लेती है।
जी हां, बैलगाडी और बरसाती को आशियाना मानने वाली घुमंतू जनजाति यानी
‘पछइहां लोहार’ में अजीबो-गरीब रीति-रिवाज प्रसिद्व है।
हिंदू धर्म को
मानते तो हैं, पर इनके शादी-विवाह हिंदू रिवाज से काफी हट कर होते हैं। इस
जनजाति में वर पक्ष के घर कन्या पक्ष बारात लेकर जाता है और दहेज भी वसूल
करता है। वर पक्ष द्वारा बारातियों की एक माह तक आव-भगत के बाद ‘दूल्हे’ को
‘दुल्हन’ के साथ बिदा किया जाता है।
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ज्ञात हो कि सन 1576 में ‘हल्दी घाटी’ के युद्ध के दौरान चित्तौड राज्य
अकबर द्वारा छीन लिए जाने के बाद महराणा प्रताप ने अपने बेटे उदय सिंह व
मुख्य सलाहकार भामाशाह के साथ अरावली की पहाडियों पर निर्वासित जीवन गुजारा
था। उनके साथ काफी तादाद में समर्थक भी थे, जिन्हें अब घुमंतू जनजाति
‘पछइहां लोहार’ के नाम से जाना जाता है।
महाराणा प्रताप जीते जी अकबर की
दास्ता नहीं स्वीकार की थी, अपने को महाराणा प्रताप का वंशज बताने वाले
पछइहां लोहार विभिन्न कस्बों व देहातों में बैलगाडी और बरसाती के सहारे आज
भी निर्वासित जीवन व्यतीत कर रहे हैं।
यह कौम हिंदू धर्म को तो मानती है,
पर शादी-विवाहों के रिवाजों में काफी भिन्नता है। वर पक्ष का परिवार कन्या
की खोज करते हैं।
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कन्या पक्ष के लोग वर पक्ष से बाकायदा दान-दहेज तय कर शादी को अंतिम रूप
देते हैं। एक माह तक चलने वाले बारातियों के आव-भगत में पहले 15 दिन तक
कन्या पक्ष की महिलाएं मेहमान होती हैं, बाद में 15 दिन पुरूष वर्ग बाराती
होते हैं।
बारात में बैलगाडी ही एक मात्र साधन होता है। न बैंड बाजा न
सारंगी की धुन सुनाई देगी। भोजन में मांस-मदिरा के अलावा कुछ भी स्वीकार्य
नहीं है। दहेज के रूप में एक जोडी बैल, बैलगाडी व लोहारगीरी का पूरा सामान
कन्या को दिया जाता है। दुल्हन, दूल्हे को बिदा कराकर अपने कुनबे ले आती
है। शादी के तुरंत बाद नव दंपति का बंटवारा भी कर दिया जाता है।
बांदा जनपद
के बिसंडा कस्बे में रह रहे लोगों का कहना है कि ‘यह उनकी पीढियों पुरानी
परंपरा है, जिसे हरगिज बदला नहीं जा सकता।’ साथ ही कहा कि ‘चित्तौडगढ राज्य
वापस न होने तक उनकी कौम यूं ही निर्वासित जीवन गुजारती रहेगी।
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