नागलोक तक जाता है ये कुंआ, नहाने से इस दोष से मिलती हैं मुक्ति

www.khaskhabar.com | Published : शनिवार, 11 अगस्त 2018, 1:55 PM (IST)

हिन्दू धर्म में सबसे ज्यादा पवित्र नगरों में से एक उत्तर प्रदेश का वाराणसी शहर है। इसे बनारस और काशी के नाम से भी जाना जाता है। वाराणसी हमेशा से ज्ञान, शिक्षा और संस्कृति का केन्द्र रहा है। कहा जाता है कि इसकी स्थापना स्वयं भगवान शिव ने की थी।

यहां पर बहुत से धार्मिक स्थल है। आज हम आपको उन्हीं मेें से एक ऐसी ही जगह के बारे में बताने जा रहे है। उत्तरप्रदेश के वाराणसी शहर में यहां के नवापुरा नामक एक स्थान पर एक कुआं है, जिसके बारे में लोगों की मान्यता है कि इसकी अथाह गहराई पाताल और नागलोक तक जाती है।

कारकोटक नाग तीर्थ के नाम से प्रसिद्ध इस कुएं की गहराई कितनी है इस बात की जानकारी किसी को भी नहीं। धर्मशास्त्रों के अनुसार इस कूप के दर्शन मात्र से ही नागदंश के भय से मुक्ति मिल जाती है।

महर्षि पाणिनी के महाभाष्य की यहीं हुई रचना...

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महर्षि पाणिनी के महाभाष्य की यहीं हुई रचना...
करकोटक नाग तीर्थ के नाम से विख्यात इसी पवित्र स्थान पर शेषावतार (नागवंश) के महर्षि पतंजलि ने व्याकरणाचार्य पाणिनी के महाभाष्य की रचना की थी। मान्यता यह भी है की इस कूप का रास्ता सीधे नाग लोक को जाता है।

कूए में स्नान मात्र से नाग दोष से मुक्ति...

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कूए में स्नान मात्र से नाग दोष से मुक्ति...
इस कूंए की सबसे बड़ी मान्यता ये हैं की इस कूए में स्नान व पूजा मात्र से ही सारे पापों का नाश हो जाता है। कूए में स्नान मात्र से ही नाग दोष से मुक्ति मिल जाती है, ऐसी मान्यता है। पूरे विश्व में काल सर्प दोष की सिर्फ तीन जगह ही पूजा होती हैं उसमे से ये कुंड प्रधान कुंड हैं।

छोटे गुरू और बड़े गुरू के पीछे की कहानी...

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छोटे गुरू और बड़े गुरू के पीछे की कहानी...
काशी के ज्योतिषाचार्य पवन त्रिपाठी बताते हैं, ‘वैसे तो नागपंचमी के दिन छोटे गुरू और बड़े गुरू के लिए जो शब्द प्रयोग किया जाता है उससे तात्पर्य यह है कि हम बड़े व छोटे दोनों ही नागों का सम्मान करते हैं और दोनों की ही विधिविधानपूर्वक पूजन अर्चन करते हैं। क्योकि, महादेव के श्रृंगार के रूप में उनके गले में सजे बड़े नागदेव हैं तो वहीं उनके पैरों के समीप छोटे-छोटे नाग भी हैं और वो भी हमारी आस्था से गहरे जुड़े हुए हैं।’

व्याकरण की दृष्टि से अगर देखे तो पतंजलि ऋषि को बड़े गुरू और पाणिनी ऋषि को छोटे गुरू की संज्ञा दी जाती है। यह गुरू शब्द का प्रयोग एकमात्र काशी की ही परंपरा से जुड़ी हुई है क्योकि इन दोनों ही ऋषियों ने व्याकरण को विस्तारित रूप देने का काम किया है।

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