बॉलीवुड में फिल्मों की शुरुआत करने वाले दादा साहब की आज 148वीं बर्थ एनिवर्सरी है। दादा साहब ने न केवल फिल्म इंडस्ट्री की नींव रखी बल्कि बॉलीवुड को पहली हिंदी फिल्म भी दी जिसे लोग आज भी याद करते हैं। 19 साल के फिल्मी सफर में दादा साहब फाल्के ने 121 फिल्में बनाई जिसमें 26 शॉर्ट फिल्में शामिल हैं। तो चलिए आपको इस खास मौके पर दादा साहब फाल्के की जिंदगी से जुड़ी कुछ खास बाते बताते हैं। -धुंडिराज गोविन्द फालके उपाख्य दादासाहब फालके का जन्म महाराष्ट्र के नाशिक शहर के त्र्यंबकेश्वर में 30 अप्रैल 1870 को हुआ था। दादासाहब फालके का पूरा नाम धुंडीराज गोविन्द फालके है । इनके पिता संस्कृत के प्रकांड पंडित थे और मुम्बई के एलफिंस्तन कालेज में प्राध्यापक थे। इस कारण दादासाहब की शिक्षा-दीक्षा मुम्बई में ही हुई।
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दादा साहेब को हमेशा से ही या ये कहे कि बचपन से ही कला के प्रति एक लगाव था। 15 साल की उम्र में उन्होंने उस ज़माने में मशहूर मुंबई के सबसे बड़े कला शिक्षा केंद्र जे.जे स्कूल ऑफ़ आर्ट्स में दाखिला लिया। फिर उन्होंने महाराजा सायाजीराव यूनिवर्सिटी में दाखिला लेकर चित्रकला के साथ फोटोग्राफी और स्थापत्य कला की भी पढ़ाई की। बहरहाल, आज गूगल ने उन्हें अपना डूडल बनाया है और उनकी जयंती के अवसर पर उन्हें याद किया है।
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भारतीय सिनेमा के पिता
कहे जाने
वाले दादा
साहेब को
भारत सरकार ने उनकी
25 वीं पुण्यतिथि पर यानी
साल 1969 में
उनके नाम
पर फाल्के अवॉर्ड शुरू किया। भारतीय सिनेमा का यह
सबसे प्रतिष्ठित पुरस्कार है
जो उन
हस्तियों को
दिया जाता
है, जो
भारतीय सिनेमा में महत्वपूर्ण योगदान देते
हैं। दादा
साबेह फाल्के अवॉर्ड पाने
वाली अभिनेत्री देविका रानी
थी दादा
साहब के
नाम पर
भारत सरकार ने साल
1971 में डाक
टिकट भी जारी
किया था!
भारतीय सिनेमा जगत की
पहली फिल्म ‘राजा हरिश्चंन्द्र’ थी
जिसे दादा
साहेब ने
बनाई थी।
इसके अलावा दादा साहेब ने दो
और पौराणिक फ़िल्में ‘भस्मासुर मोहिनी’
और ‘सावित्री’ बनाई। 1915
में अपनी
इन तीन
फ़िल्मों के
साथ दादासाहब विदेश चले
गए। लंदन
में इन
फ़िल्मों की
बहुत प्रशंसा हुई। कोल्हापुर नरेश के
आग्रह पर
1938 में दादासाहब ने अपनी
पहली और
अंतिम बोलती फ़िल्म ‘गंगावतरण’ बनाई। फाल्के के
फ़िल्म निर्माण के प्रयास और फ़िल्म ‘राजा हरिश्चंद्र’ के
निर्माण पर
मराठी में
एक फीचर
फ़िल्म ‘हरिश्चंद्राची फॅक्टरी’ 2001 में
बनी, जिसे देश
विदेश में
सराहा गया।
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साल 1994 में दादा साहेब एक फिल्म बनाना चाहते थे लेकिन उस समय ब्रिटिश राज होने के कारण उन्हें फिल्म बनाने के लिए लाइसेंस नहीं मिला जिसका उन्हें काफी गहरा सदम लगा और दो दिन के भीतर ही दादा साहेब चल बसे। दादा साहेब भले ही इस दुनिया को अलविदा कह गए हो लेकिन आज भी उन्हें हिंदी सिनेमा जगत में पूरा सम्मान मिलता है और उसी सम्मान के साथ उनका नाम आज भी लिया जाता है।
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