‘भाषा’ के पुनरूत्थान के लिए जरूरत है हिन्दी मीडियम जैसी फिल्मों की

www.khaskhabar.com | Published : मंगलवार, 30 मई 2017, 11:18 AM (IST)

वर्ष में केवल 52 सप्ताह होते हैं और प्रदर्शित फिल्में होती हैं एक सौ अस्सी। ऐसे में कहीं ना कहीं कोई न कोई तो टकराव होगा ही। हर सप्ताह दो बडे सितारों की फिल्मों का टकराव होता है जीत सितारों की नहीं वरन् फिल्म के कंटेंट की होती है, जो अच्छा होता है वहीं पसन्द किया जाता है। हाल ही में बॉक्स ऑफिस पर दो फिल्मों हिन्दी मीडियम और हॉफ गर्लफ्रेंड का प्रदर्शन हुआ था। दोनों फिल्मों के सितारों की लोकप्रियता का पैमाना अलग-अलग है ऐसे में लग रहा था कि इरफान खान की फिल्म हल्की रहेगी लेकिन जिस तरह से उसने बॉक्स ऑफिस पर सफलता प्राप्त की है, उसने इस बात को पुरजोर तरीके से सिद्ध किया है कि फिल्म के सितारों से ज्यादा अहमियत फिल्म के कंटेंट की है।

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अगर विषय अच्छा है, उसका प्रस्तुतीकरण अच्छा है तो निश्चित तौर पर फिल्म दर्शकों को पसन्द आएगी और वह चलेगी। हॉफ गर्लफ्रेंड और हिन्दी मीडियम के साथ यही हुआ है। दोनों फिल्मों का विषय अलग है हॉफ गर्लफ्रेंड एक विफल प्रेम कहानी है, वहीं हिन्दी मीडियम ज्वलंत समस्या पर है। युवाओं को जहां हॉफ गर्लफ्रेंड पसन्द आई है, वहीं हिन्दी मीडियम उन दर्शकों के दिलों दिमाग पर छा गई है जो अपने बच्चों के स्कूल प्रवेश को लेकर खासे परेशान हैं। यह उन युवा माता-पिता की कहानी है जो अपने बच्चे को अच्छी शिक्षा दिलाना चाहता है लेकिन उसके पास उन नामी गिरामी स्कूलों की मांग पूरी करने की क्षमता नहीं है।

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निर्देशक साकेत चौधरी ने अपनी फिल्म के जरिये संदेश देने का प्रयास किया है कि अपनी मातृ भाषा को छोडकर परायी भाषा में पायी गई शिक्षा अच्छी शिक्षा नहीं है। सरकार द्वारा जबरदस्ती थोपी गई ‘अंग्रेजी’ ने भारत की मातृ भाषा ‘हिन्दी’ का जो हश्र किया है, उस पर करारी चोट करती है हिन्दी मीडियम। इस फिल्म को सफलता दिलाने में जिन दर्शकों का हाथ है, क्या वे आगे जाकर ‘अंग्रेजी माध्यम’ स्कूलों के वर्चस्व का विरोध करते हुए अपने बच्चों को ‘हिन्दी माध्यम’ में पढाना चाहेंगे। शायद नहीं, क्योंकि फिल्म का असर कुछ क्षणों, पलों, घंटों और सप्ताहों तक ही सीमित रहता है वह ताउम्र साथ नहीं चलता।

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काल्पनिक लोक से निकल कर वास्तविक धरातल पर आकर उन्हीं रास्तों पर चलना पडता है जिस पर अंसख्य लोग चल रहे हैं। अकेले चलने वाले को यही ‘असंख्य’ लोग अनपढ, गंवार समझते हैं। ऐसे में अपने बच्चे को दुनिया की नजरों में लाने के लिए उसे इन्हीं अंग्रेजी माध्यम स्कूलों में जाना पडता है। ऐसा भी नहीं है कि सिनेमा का असर समाज पर नहीं पडता है। जरूर पडता है पर इसके लिए सतत् प्रयास की जरूरत है। जरूरत है ऐसी ही अनगिनत फिल्मों की जिनके जरिये सामाजिक दुश्वारियों को प्रमुखता से उठाते हुए उसके निराकरण का प्रयास बताया जाए।

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यदि भारत को अंग्रेजी दा स्कूलों से मुक्त करवाना है तो सबसे पहले सरकारी तंत्र में अंग्रेजी के बोलबाले को कम करना होगा। सरकारी तंत्र को पुन: अपनी मातृ भाषा की ओर लौटते हुए सारे कार्य करने होंगे जिसकी देखा-देखी आम जनता भी उसी राह पर चलेगी। वरना एक दिन आएगा जब भारत आजाद मुल्क होते हुए भी इस ‘अंग्रेजीयत’ का पूरी तरह से गुलाम होगा। यहां इस भाषा के जनक देश से ज्यादा अंग्रेजी का वर्चस्व होगा।

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