राम मंदिर की ईंट तू रख, मैं तेरी बाबरी मस्जिद की...

www.khaskhabar.com | Published : मंगलवार, 21 मार्च 2017, 7:56 PM (IST)

लखनऊ। राममंदिर पर सर्वोच्च न्यायालय का अच्छा सुझाव आया है। अदालत ने राममंदिर और बाबरी मस्जिद के पक्षकारों को अपनी भाषा में साफ संदेश दिया है। अगर इस बात को कोई नहीं समझता है तो यह उसकी खुद की भूल समझी जाएगी।
अदालत ने कहा है कि अगर न्याय क्षेत्र से बाहर इस विवाद हल निकाला जाता है तो सुप्रीमकोर्ट के न्यायाधीश भी पहल करेंगे। यह अनुकूल वक्त है, इस पर राजनीति नहीं होनी चाहिए। गरिमामयी पीठ की भाषा को दोनों धर्म और समुदाय के साथ पक्षकारों को समझना चाहिए।

आखिरकार आस्था से जुड़े इस संवेदनशील मसले का फैसला अदालत ही करेगी। वह फैसला किसी के हित और दूसरे के विपरीत हो सकता है। उस स्थिति में सर्वोच्च संवैधानिक पीठ का फैसला सभी को मानना होगा। लेकिन अगर हिंदू-मुस्लिम पक्षकार आपसी सहमति से सौहार्दपूर्ण तरीके से विवाद का हल निकाल लेते हैं तो इससे बढ़िया कोई तरीका नहीं होगा। इसका साफ संदेश पूरी दुनिया में जाएगा। जिस सहिष्णु धर्म-संस्कृति के लिए भारत की पहचान विश्वभर में है, एक बार फिर प्रमाणित हो जाएगी।

इस पर फैसला 31 मार्च को आना है। मुख्य न्यायाधीश खेर के इस निर्णय को क्या हिंदू और मुसलमान दोनों समुदाय के लोग मानने को तैयार होंगे? क्या मुस्लिम समुदाय राम जन्मभूमि कही जाने वाली जमनी से अपना दावा छोड़ेगा? क्या आपसी बात से अदालत के बाहर इसका फैसला हो जाएगा? तमाम ऐसे सवाल हैं, जिसके लिए अभी इंतजार करना होगा।

अदालत ने यह बात भाजपा नेता एवं अधिवक्ता सुब्रमण्यम स्वामी की याचिका पर कही है। स्वामी की तरफ से मामले की शीघ्र सुनवाई के लिए याचिका दायर की गई है। राममंदिर हिंदू और मुसलमान दोनों के लिए उतना महत्वपूर्ण है। आज सांप्रदायिक बिलगाव की जो स्थिति बनी है, उसके बीच में भी यही मसला है।

अयोध्या विवाद पर इलाहाबाद हाईकोर्ट की लखनऊ पीठ ने वर्ष 2010 में अपना फैसला सुनाया था, जिसमें पूरी विवादित जमीन को तीन भागों में बांटने का फैसला किया था। एक भाग हिंदू पक्ष, दूसरा वक्फबोर्ड और तीसरा हिस्सा तीसरे पक्षकार को देने निर्णय दिया गया था। लेकिन पक्षकारों को यह फैसला मंजूर नहीं हुआ और मसला सुप्रीम कोर्ट चला गया। बाद में केंद्र सरकार ने वहां की 70 एकड़ जमीन अधिग्रहीत कर ली।

आस्था से जुड़े इस विवाद की सबसे बड़ी बात यह है कि इसकी पहल किसकी तरफ से होनी चाहिए?

राममंदिर राजनीति का विषय नहीं है। देश और उसके सांप्रदायिक सद्भाव के लिए यह अहम बात है। इस मुकदमे में एक पक्षकार रहे हासिम अंसारी ने कहा था कि वह रामलला को तिरपाल के नीचे नहीं देखना चाहते। हालांकि उसी जगह पर उन्होंने बाबरी मस्जिद की भी वकालत की थी। लेकिन अब वह हमारे बीच नहीं रहे, उनकी जिम्मेदारी अब उनका बेटा उठा रहा है।

वैसे, सुप्रीम कोर्ट में इस मसले को ले जाने वाले भाजपा नेता स्वामी का कहना है कि विवादित भूमि हिंदुओं को सौंप दी जाए और मुसलमान सरयू पार जाकर मस्जिद बनाएं। क्या यह संभव है?

अयोध्या विवाद आस्था के साथ-साथ राजनीति, इतिहास और समाजिक विवाद का मसला बन गया है। 68 सालों से यह झगड़ा चला आ रहा है। वर्ष 1992 में विवादित ढांचा ढहाए जाने के बाद यह हिंदुओं और मुसलमानों के बीच धार्मिक प्रतिष्ठा का सवाल बन गया। राजनीति की वजह से सांप्रदायिता का रंग पकड़ा और देश को भारी नुकसान उठाना पड़ा।

राममंदिर आस्था के साथ-साथ दोनों समुदायों के लिए राजनीति का मसला भी है। हिंदुओं का दावा है कि वहां राममंदिर था और मुगल आक्रमणकारी बाबर ने राममंदिर को तोड़कर मस्जिद बनाई या मंदिर को मस्जिद का रूप दे दिया।

भगवान श्रीराम का जन्म अयोध्या में हुआ था। लिहाजा, यह तो सिद्ध है की वहां श्रीराम का मंदिर था और मुगल शासनकाल में उससे छेड़छाड़ की गई। इस मंदिर का निर्माण विक्रमादित्य द्वितीय ने करवाया था। राष्ट्रीय स्वंयसेवक संघ और भारतीय जनता पार्टी की अगुवाई में कारसेवा के दौरान 6 दिसंबर 1992 को विवादित ढांचा गिरा दिया गया था। इसके बाद वोट के लिए देश को सांप्रदायिक दंगों की आग में झोंका गया।

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ऐतिहासिक प्रमाण है कि 1528 में राम जन्मभूमि पर मस्जिद का निर्माण हुआ था। 1853 में पहली बार इस जमीन को लेकर दोनों संप्रदायों में विवाद हुआ। 1859 में विवाद की वजह से अंग्रेजों ने पूजा और नमाज अदा करने के लिए बीच का रास्ता अपनाया था। दोनों समुदायों में विवाद गहराता देख 1949 में केंद्र सरकार ने ताला लगा दिया। बाद में 1986 में फैजाबाद जिला अदालत ने हिंदुओं की पूजा आराधना के लिए ताला खोलने का आदेश दिया। राजीव गांधी सरकार ने राममंदिर का ताला खुलवाया था।

वर्ष 1989 में विहिप ने विवादित स्थल पर मंदिर निर्माण शुरू किया। इसके विरोध में मुस्लिम समुदाय ने बाबरी एक्शन कमेटी का गठन किया गया। राम मंदिर विवाद हल करने के लिए 1993 में लिब्राहन आयोग का गठन किया गया। आयोग को तीन महींने में रिपोर्ट देनी थी, लेकिन 17 साल लग गए। बाद में आयोग ने चार हिस्सों में 700 पन्नों में तत्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह और गृहमंत्री पी. चिदंबरम को यह रिपोर्ट सौंपी।

17 सालों पर इस जांच आयोग पर आठ करोड़ से अधिक खर्च हुए और 48 बार कार्यकाल बढ़ाया गया। आयोग ने 2009 में अपनी अंतिम रिपोर्ट सौंपी।

अदालत का सुझाव अच्छे वक्त में आया है, जहां केंद्र में भाजपा की मोदी सरकार और राज्य में हाल मंे योगी आदित्यनाथ ने कमान संभाली है। भाजपा और उससे जुड़े आरएसएस और हिंदू संगठनों के लिए राममंदिर का मसला अहम रहा है। राजनीति में हिंदू वोटों के ध्रुवीकरण के लिए इसका खुला उपयोग होता रहा है।

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लोकसभा के 2014 और यूपी के हाल के चुनावों में भी राममंदिर का मुद्दा छाया रहा। उस स्थिति में भाजपा के लिए अदालत का संदेश एक अच्छा संकेत है। इस सुझाव का सभी दलों ने स्वागत किया है। भाजपा के साथ कांग्रेस और बाबरी एक्शन कमेटी के साथ दोनों समुदाय के धर्मगुरुओं ने भी अदालत की प्रक्रिया को सकारात्मक बताया है।

लेकिन अहम सवाल है कि क्या अदालत से बाहर इस फैसले पर आम राय बनाने की कोशिश होगी? अगर ऐसा होता है तो पहल किसकी तरफ से होनी चाहिए? पहला कदम कौन बढ़ाएगा, यह अपने आप में बड़ा सवाल है। निश्चित तौर पर इसे राजनीति से अलग होकर देखना और सोचना चाहिए। अगर हिंदू और मुसलमान समुदाय के लोग आपस में इस समस्या का हल निकाल लेते हैं तो यह अपने आप में अलग किस्म का संदेश होगा।

सांप्रदायिक सौहार्द के लिए दूरदर्शी निर्णय होगा। मसाइल के हल से दोनों समुदायों के बीच बनी दूरी खत्म हो जाएगी। इसके लिए केंद्र और राज्य दोनों सरकारों को सकारात्मक पहल करनी चाहिए। यह आस्था का प्रश्न है। उस स्थिति में धर्म गुरुओं के साथ सभी पक्षकारों, न्यायाधीश, राजनीतिज्ञों, सामाजिक कार्यकर्ताओं और देश की दूसरी जानीमानी हस्तियों को मिलाकर एक कमेटी बननी चाहिए, जिसमें दोनों समुदाय की जिम्मेदारी हो। आपसी सहमति के बाद रामंदिर का मार्ग प्रशस्त होना चाहिए। सरकार को इसके लिए आगे आना चाहिए।

राममंदिर निर्माण के लिए मुस्लिमों और बाबरी के लिए हिंदुओं को पहली ईंट रखनी चाहिए। इससे बड़ी बात और क्या हो सकती है। लेकिन सबकुछ इतना आसान नहीं दिखता।

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लेकिन एक बात साफ हो गई कि अदालत आखिरकार बीच का रास्ता अपनाते हुए दोनों समुदाय की भावनाओं और देश की सांस्कृतिक विरासत और गौरवमयी सभ्यता को ध्यान में रखते हुए फैसला सुना सकती है। वह फैसला दोनों समुदायों के हित में होगा, जिसे मानना सभी की बाध्यता होगी, क्योंकि सबसे बड़ी अदालत के फैसले के बाद दूसरा रास्ता नहीं बचता।

(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं, ये उनके निजी विचार हैं)

-आईएएनएस

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