इंज़माम वहीदी, नई दिल्ली। तीन
तलाक को लेकर पूरे देश में बहस छिड़ी हुई है। सबकी अलग-अलग राय है लेकिन ऐसे कम ही
लोग हैं जिन्हें इस्लाम में तलाक की रिवायत, हकीकत और फलसफे
की सही जानकारी हो। शरीयत में तलाक के क्या मायने है, कैसे होता है
तलाक और कैसे निभाया जाता है, इस पर खास खबर की खास रिपोर्ट।
यूं तो तलाक़ कोई अच्छी चीज़ नहीं है और सभी लोग
इसको ना पसंद करते हैं । इस्लाम में भी यह एक बुरी बात समझी जाती है लेकिन इसका
मतलब यह हरगिज़ नहीं कि तलाक़ का हक ही इंसानों से छीन लिया जाए...
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पति पत्नी में अगर किसी तरह भी निबाह नहीं हो
पा रहा है तो अपनी ज़िंदगी जहन्नुम बनाने से बेहतर है कि वो अलग हो कर अपनी ज़िन्दगी
का सफ़र अपनी मर्ज़ी से पूरा करें जो कि इंसान होने के नाते उनका हक है, इसीलिए
दुनिया भर के कानून में तलाक़ की गुंजाइश मौजूद है। पैगम्बरों के दीन (धर्म) में भी तलाक़
की गुंजाइश हमेशा से रही है। दीने इब्राहीम की रिवायात के मुताबिक अरब जाहिलियत के
दौर में भी तलाक़ से अनजान नहीं थे, उनका इतिहास बताता है कि तलाक़ का कानून
उनके यहाँ भी लगभग वही था। जो अब इस्लाम में है लेकिन कुछ बिद्दतें उन्होंने इसमें
भी दाख़िल कर दी थी।
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किसी जोड़े में तलाक़ की नौबत आने से पहले हर
किसी की यह कोशिश होनी चाहिए कि जो रिश्ते की डोर एक बार बंध गई है उसे मुमकिन हद
तक टूटने से बचाया जाए। जब किसी पति-पत्नी का झगड़ा बढ़ता दिखाई दे तो
अल्लाह ने कुरान में उनके करीबी रिश्तेदारों और उनका भला चाहने वालों को यह हिदायत
दी है कि वो आगे बढ़ें और मामले को सुधारने की कोशिश करें इसका तरीक़ा क़ुरान ने यह
बतलाया है कि एक फ़ैसला करने वाला शौहर के ख़ानदान में से मुक़र्रर करें और एक फ़ैसला
करने वाला बीवी के ख़ानदान में से चुनें और वो दोनों जज मिल कर उनमे सुलह कराने की
कोशिश करें, इससे उम्मीद है कि जिस झगड़े को पति पत्नी नहीं
सुलझा सके वो ख़ानदान के बुज़ुर्ग और दूसरे हमदर्द लोगों के बीच में आने से सुलझ
जाए।
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क़ुरान ने इसे कुछ यूं बयान किया है कि और अगर तुम्हें शौहर बीवी में फूट पड़ जाने
का अंदेशा हो तो एक हाकिम (जज) मर्द के लोगों में से और एक औरत के लोगों में से
मुक़र्रर कर दो, अगर शौहर बीवी दोनों सुलह चाहेंगे तो अल्लाह
उनके बीच सुलह करा देगा, बेशक अल्लाह सब कुछ जानने वाला और सब
की ख़बर रखने वाला है” – (सूरेह निसा-35).
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इसके बावजूद भी अगर शौहर और बीवी दोनों या
दोनों में से किसी एक ने तलाक़ का फ़ैसला कर ही लिया है तो शोहर बीवी के मासिक धर्म
का इन्तज़ार करे और ख़ास दिनों के गुज़र जाने के बाद जब बीवी पाक हो जाए तो बिना हम
बिस्तर हुए कम से कम दो ज़िम्मेदार लोगों को गवाह बना कर उनके सामने बीवी को एक
तलाक़ दे, यानि शौहर बीवी से सिर्फ़ इतना कहे कि मैं तुम्हे तलाक़ देता हूँ।
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तलाक हर हाल में एक ही बार बोला जाएगा, दो
या तीन या सौ बार नहीं, जो लोग जिहालत की हदें पार करते हुए दो तीन या
हज़ार तलाक़ बोल देते हैं यह इस्लाम के बिल्कुल ख़िलाफ़ अमल है और बहुत बड़ा गुनाह है
अल्लाह के रसूल (सल्लाहू अलैहि वसल्लम) के फरमान के मुताबिक जो ऐसा बोलता है वो
इस्लामी शरीयत और कुरान का मज़ाक उड़ा रहा होता है.
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इस एक तलाक़ के बाद बीवी 3 महीने यानि 3 तीन हैज़ (जिन्हें इद्दत कहा जाता है और
अगर वो प्रेग्नेंट है तो बच्चा होने) तक शौहर ही के घर रहेगी और उसका ख़र्च भी शौहर
ही के ज़िम्मे रहेगा लेकिन उनके बिस्तर अलग रहेंगे, क़ुरान ने सूरेह तलाक़ में हुक्म फ़रमाया है कि इद्दत
पूरी होने से पहले ना तो बीवी को ससुराल से निकाला जाए और ना ही वो ख़ुद निकले, इसकी वजह क़ुरान ने यह बतलाई है कि इससे उम्मीद है कि
इद्दत के दौरान शोहर बीवी में सुलह हो जाए और वो तलाक़ का फ़ैसला वापस लेने को तैयार
हो जाए।
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अक्ल की रौशनी से अगर इस हुक्म पर ग़ौर किया जाए
तो मालूम होगा कि इसमें बड़ी अच्छी हिकमत है, हर मआशरे(समाज)
में बीच में आज भड़काने वाले लोग मौजूद होते ही हैं, अगर बीवी तलाक़ मिलते ही अपनी माँ के घर चली जाए तो ऐसे लोगों को दोनों तरफ़ कान भरने का मौका मिल
जाएगा, इसलिए यह ज़रूरी है कि बीवी इद्दत का वक़्त शौहर ही के घर गुज़ारे।
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फिर अगर शौहर बीवी में इद्दत के दौरान सुलह हो
जाए तो फिरसे वो दोनों बिना कुछ किये शौहर और बीवी की हैसियत से रह सकते हैं।इसके
लिए उन्हें सिर्फ़ इतना करना होगा कि जिन गवाहों के सामने तलाक़ दिया था,उनको
ख़बर कर दें कि हमने अपना फ़ैसला बदल लिया है।क़ानून में इसे ही रुजू करना कहते हैं
और यह ज़िन्दगी में दो बार किया जा सकता है इससे ज़्यादा नहीं.(सूरेह बक्राह-229)
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शोहर रुजू ना करे तो इद्दत के पूरा होने पर
शौहर बीवी का रिश्ता ख़त्म हो जाएगा, लिहाज़ा कुरान ने यह हिदायत फ़रमाई है कि
इद्दत अगर पूरी होने वाली है तो शौहर को यह फ़ैसला कर लेना चाहिए कि उसे बीवी को
रोकना है या रुख़सत करना है, दोनों ही सूरतों में अल्लाह का हुक्म है कि मामला भले तरीक़े से किया जाए, सूरेह बक्राह में हिदायत फ़रमाई है कि
अगर बीवी को रोकने का फ़ैसला किया है तो यह रोकना बीवी को परेशान करने के लिए हरगिज़
नहीं होना चाहिए बल्कि सिर्फ़ भलाई के लिए ही रोका जाए।
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शोहर रुजू ना करे तो इद्दत के पूरा होने पर
शौहर बीवी का रिश्ता ख़त्म हो जाएगा, लिहाज़ा कुरान ने यह हिदायत फ़रमाई है कि
इद्दत अगर पूरी होने वाली है तो शौहर को यह फ़ैसला कर लेना चाहिए कि उसे बीवी को
रोकना है या रुख़सत करना है, दोनों ही सूरतों में अल्लाह का हुक्म है कि मामला भले तरीक़े से किया जाए, सूरेह बक्राह में हिदायत फ़रमाई है कि
अगर बीवी को रोकने का फ़ैसला किया है तो यह रोकना बीवी को परेशान करने के लिए हरगिज़
नहीं होना चाहिए बल्कि सिर्फ़ भलाई के लिए ही रोका जाए।
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अल्लाह कुरान में फरमाता है कि और जब तुम औरतों को तलाक दो और वो अपनी
इद्दत के ख़ात्मे पर पहुँच जाए तो या तो उन्हें भले तरीक़े से रोक लो या भले तरीक़े
से रुख़सत कर दो, और उन्हें नुकसान पहुँचाने के इरादे से ना रोको
और न उनपर ज़ुल्म करो, और याद रखो कि जो कोई ऐसा करेगा वो दर हकीक़त
अपने ही ऊपर ज़ुल्म ढाएगा, और अल्लाह की आयतों को मज़ाक ना बनाओ और
अपने ऊपर अल्लाह की नेमतों को याद रखो और उस कानून और हिकमत को याद रखो जो अल्लाह
ने उतारी है जिसकी वो तुम्हे नसीहत करता है, और अल्लाह से
डरते रहो और ध्यान रहे के अल्लाह हर चीज़ से वाक़िफ़ है (सूरेह
बक्राह-231) लेकिन अगर उन्होंने इद्दत के दौरान रुजू नहीं किया
और इद्दत का वक़्त ख़त्म हो गया तो अब उनका रिश्ता ख़त्म हो जाएगा, अब
उन्हें जुदा होना है।
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इस मौक़े पर क़ुरान ने कम से कम दो जगह (सूरेह
बक्राह आयत 229 और सूरेह निसा आयत 20 में) इस बात पर बहुत ज़ोर दिया है कि मर्द ने
जो कुछ बीवी को पहले गहने, कीमती सामान, रूपये या कोई
जाएदाद तोहफे के तौर पर दे रखी थी उसका वापस लेना शौहर के लिए बिल्कुल जायज़ नहीं
है वो सब माल जो बीवी को तलाक़ से पहले दिया था वो अब भी बीवी का ही रहेगा और वो उस
माल को अपने साथ लेकर ही घर से जाएगी, शौहर के लिए वो माल वापस मांगना या
लेना या बीवी पर माल वापस करने के लिए किसी तरह का दबाव बनाना बिलकुल जायज़ नहीं
है।
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(नोट– अगर बीवी ने खुद तलाक़ मांगी थी जबकि
शौहर उसके सारे हक सही से अदा कर रहा था या बीवी खुली बदकारी पर उतर आई थी जिसके
बाद उसको बीवी बनाए रखना मुमकिन नहीं रहा था तो महर के अलावा उसको दिए हुए माल में
से कुछ को वापस मांगना या लेना शोहर के लिए जायज़ है.)
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अब इसके बाद बीवी आज़ाद है वो चाहे जहाँ जाए और
जिससे चाहे शादी करे, अब पहले शौहर का उस पर कोई हक बाकी नहीं रहा। इसके
बाद तलाक देने वाला मर्द और औरत जब कभी ज़िन्दगी में दोबारा शादी करना चाहें तो वो
कर सकते हैं। इसके लिए उन्हें आम निकाह की तरह ही फिरसे निकाह करना होगा और शौहर को
महर देने होंगे और बीवी को महर लेने होंगे.
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अब फ़र्ज़ करें कि दूसरी बार निकाह करने के बाद
कुछ समय के बाद उनमें फिरसे झगड़ा हो जाए और उनमें फिरसे तलाक हो जाए तो फिर से वही
पूरा प्रोसेस दोहराना होगा जो ऊपर लिखा है। अब फ़र्ज़ करें कि दूसरी बार भी तलाक के
बाद वो दोनों आपस में शादी करना चाहें तो शरियत में तीसरी बार भी उन्हें निकाह
करने की इजाज़त है। लेकिन अब अगर उनको तलाक हुआ तो यह तीसरा तलाक़ होगा जिसके बाद ना तो रुजू कर सकते हैं और ना ही आपस में निकाह किया जा सकता है।
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हलाला:अब चौथी बार उनकी आपस में निकाह करने की
कोई गुंजाइश नहीं लेकिन सिर्फ ऐसे कि अपनी आज़ाद मर्ज़ी से वो औरत किसी दूसरे मर्द
से शादी करे और इत्तिफाक़ से उनको भी निभा ना हो सके और वो दूसरा शौहर भी उसे तलाक
देदे या मर जाए तो ही वो औरत पहले मर्द से निकाह कर सकती है, इसी
को कानून में ”हलाला” कहते हैं. लेकिन याद रहे यह इत्तिफ़ाक से हो तो
जायज़ है। जान बूझ कर या प्लान बना कर किसी और मर्द से शादी करना और फिर उससे सिर्फ
इस लिए तलाक लेना ताकि पहले शौहर से निकाह जायज़ हो सके यह साजिश सरासर नाजायज़ है
और अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने ऐसी साजिश करने वालों पर लानत
फरमाई है.
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खुला: अगर सिर्फ़ बीवी तलाक चाहे तो उसे शौहर से
तलाक मांगना होगा। अगर शौहर नेक इंसान होगा तो ज़ाहिर है
वो बीवी को समझाने की कोशिश करेगा और फिर उसे एक तलाक दे देगा। लेकिन अगर शौहर मांगने के बावजूद भी तलाक नहीं देता तो बीवी के लिए
इस्लाम में यह आसानी रखी गई है कि वो शहर काज़ी (जज) के पास जाए और उससे शौहर से
तलाक दिलवाने के लिए कहे।
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इस्लाम ने काज़ी को यह हक़ दे रखा है कि वो उनका रिश्ता ख़त्म करने का ऐलान कर दे, जिससे उनका तलाक हो जाएगा, कानून में इसे खुला कहा जाता है। यही
तलाक का सही तरीका है लेकिन अफ़सोस की बात है कि हमारे यहां इस तरीके की ख़िलाफ़ वर्जी भी होती है और कुछ लोग बिना सोचे समझे इस्लाम के ख़िलाफ़ तरीके से तलाक देते
हैं जिससे खुद भी परेशानी उठाते हैं और इस्लाम की भी बदनामी होती है।
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