खास खबर EXCLUSIVE : मुलायम ही चल रहे हैं चुनावी चौसर की चालें

www.khaskhabar.com | Published : शनिवार, 22 अक्टूबर 2016, 09:34 AM (IST)

अमिताभ श्रीवास्तव, दिल्ली। क्या वाकई मुलायम सिंह यादव बुजुर्ग होने की वजह से यूपी और परिवार की राजनीति को नहीं समझ पा रहे हैं। क्या वो खुद अपने ही भंवरजाल में फंस गए हैं, जिस परिवार को उन्होंने इतना बढ़ाया और राजनीतिक मजबूती दी, वो बिखरने की कगार पर है, क्या भाई शिवपाल सिंह यादव और अखिलेश यादव की राहें अलग-अलग हो चुकी हैं, मीडिया में जिस तरह से पिछले डेढ़ महीने से खबरें चल रही हैं, क्या वो सही हैं।

खबरें तो यहां तक फैल चुकी हैं कि अखिलेश यादव पार्टी छोड़ सकते हैं, नई पार्टी बना सकते हैं, राष्ट्रीय समाजवादी पार्टी नाम भी रख दिया गया है, मोटरसाइकिल चुनाव चिन्ह तय हो गया है। तीन नवंबर को इसका ऐलान भी हो सकता है। खबर ये भी फैली कि वो बीजेपी का साथ दे सकते हैं। रामगोपाल यादव और अखिलेश यादव एकजुट हैं। यहां तक चर्चा जोर पकड़ी कि रामगोपाल यादव को पार्टी से हटाया जा सकता है।

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मुख्य सचिव दीपक सिंघल को हटाया जाना, गायत्री प्रजापति की मंत्रिमंडल से बर्खास्तगी, मुख्तार अंसारी को लेकर अनबन जैसे घटनाक्रम देखकर हर कोई कहने लगा कि पार्टी में शिवपाल और अखिलेश दो फाड़ हो चुके हैं और मुलायम सिंह यादव संभाल नहीं पा रहे हैं। इन दोनों के समर्थक तक लखनऊ की सड़कों पर उतर आए। चिट्ठी बम फूटने लगे और एक-दूसरे पर प्रहार का सिलसिला जोर पकड़ने लगा।
मीडिया में भले ही हर रोज सपा के बवंडर सुर्खियां छाई हों पर यूपी के राजनीतिक पंडित इसे दूसरे नजरिए से देखते हैं। जिन्होंने मुलायम सिंह यादव की राजनीति शुरू से देखी है और समझी है वो इस बात पर अडिग हैं कि ऐसा कुछ नहीं है। जो दिख रहा है वो हकीकत नहीं। न तो मुलायम सिंह कमजोर हो गए हैं और न ही उनका अखिलेश से मोहभंग हो गया है। अखिलेश से जैसे रिश्ते पहले थे,वैसे ही हैं और आगे भी रहेंगे।

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बात केवल रिश्ते की नहीं है, इस वक्त सबसे अहम हैं यूपी का चुनाव और उसका फोकस है अखिलेश यादव की पांच साल की सरकार। बीएसपी हो या बीजेपी या फिर कांग्रेस, सबके निशाने पर हैं अखिलेश यादव और उनका मंत्रिमंडल।अखिलेश की छवि भले ही साफ रही हो पर मंत्रिमंडल की नहीं रही और न ही नौकरशाही की।
पार्टी पदाधिकारी भी बेदाग नहीं रहे। ऐसे में पार्टी को अपनी साख बचाने के लिए एक ही चेहरा है और वो हैं अखिलेश यादव।अखिलेश की क्लीन इमेज, उनके विकास कार्य को आगे कैसे लाया जाए, सरकार पर लगे भ्रष्टाचार के आरोपों से उन्हें कैसे अलग किया जाए और उनके प्रति जनता में सहानुभूति कैसे पैदा की जाए, इस पर पार्टी का जोर है।


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आज भी मुलायम सिंह यादव ही पार्टी की मुखिया हैं और परिवार के भी, उनकी बात कोई नहीं टाल सकता और उनके बिना कोई बड़ा फैसला नहीं हो सकता। जो उन्होंने कह दिया वही होता था और हो रहा है। रामगोपाल यादव हों या शिवपाल सिंह यादव या फिर अखिलेश, ऐसा हो ही नहीं सकता कि उनकी बात कोई टाल दे या फिर गंभीरता से न ले। ये चुनाव भी उनकी छत्रछाया में लड़ा जा रहा है और उसकी पटकथा भी उनके निर्देशन में ही लिखी जा रही है। जो मीडिया में खबरें अब तक आईं हैं वो भी यूं ही नहीं आईं।

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राजनीतिक पंडित साफ कहते हैं कि ये सब चुनाव की रणनीति का हिस्सा है और तीन नवंबर तक सब साफ हो जाएगा। जैसे ही अखिलेश यादव विकास रथ पर सवार होंगे और जनता के बीच निकल जाएंगे, कुहासा छंट जाएगा और तय हो जाएगा कि पार्टी फिर सत्ता में आई तो मुख्यमंत्री अखिलेश यादव ही होंगे। इस पर न तो शिवपाल को ऐतराज था और न आगे होगा। पूरा परिवार फिर एकजुट दिखाई देगा और ये भी साफ हो जाएगा कि इस बीच जो दांव-पेंच पार्टी और परिवार ने चले, वो अखिलेश की इमेज बरकरार रखने के लिए थे।

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राजनीतिक पंडित इसके पीछे तर्क भी देते हैं कि मीडिया तक वही आया जो उन्हें बताया गया। कैसे पार्टी की आपसी चिट्ठियां मीडिया तक बेधड़क पहुंच गईं। कैसे कार्यकर्ता सड़कों पर आए और फिर गायब हो गए, कैसे गायत्री प्रजापति हटे और वापस आ गए, कैसे पहले अखिलेश के मुख्यमंत्री पद के दावेदार न होने की सुर्खियां बनीं और फिर कैसे मुख्यमंत्री उन्हीं को बनाने की सफाई मिलने लगी।

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इतना घमासान होने के बाद भी अब तक किसी पर कोई कार्रवाई नहीं हुई। मुलायम सिंह का जो कद है चाहे परिवार में हो या पार्टी में, किसी की इतनी हिम्मत नहीं कि वो गोपनीय बैठकों को, दिशा-निर्देशों को या कागजातों को उजागर कर दे और कोई हिम्मत जुटाता भी है तो उसे बख्श दिया जाए। कुल मिलाकर ये है कि मुलायम पर्दे के पीछे हैं, चुनावी चौसर में पांसे उन्हीं के हिसाब से फेंके जा रहे हैं।

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