जोधपुर। राजस्थान हाई कोर्ट ने अपने फैसले में कहा है कि घरेलू हिंसा से महिलाओं का संरक्षण अधिनियम, 2005 में मुकदमा करने के लिए कोई मियाद निश्चित नहीं है। इसके साथ ही हाईकोर्ट ने अतिरिक्त जिला और सेशन न्यायाधीश संख्या-2 जोधपुर महानगर का आदेश अपास्त कर दिया। मामले के तथ्यों के अनुसार जोधपुर निवासी रिजवाना ने अपने पति मोहम्मद यूनुस के विरुद्ध भरण पोषण व घरेलू हिंसा का मुकदमा किया था। इसमें उसके पक्ष में दो हजार रुपए मासिक अंतरिम गुजारा भत्ता देने का आदेश हुआ था। रिजवाना ने सेशन कोर्ट में अपील कर इस राशि को बढ़ाने की मांग की। जबकि पति ने इस आदेश को इस आधार पर चुनौती दी कि यह मुकदमा मियाद से बाहर है। पति ने इन्द्रजीतसिंह गिरवाल बनाम राज्य को आधार बनाया गया था। इस निर्णय में सुप्रीम कोर्ट ने यह निर्धारित किया था कि इस मामले में भारतीय दण्ड संहिता की धारा 468 के प्रावधान लागू होते हैं और अंतिम घटना के एक वर्ष के भीतर ही घरेलू हिंसा का मुकदमा यदि नहीं हुआ है तो वह मियाद बाहर होगा। अतिरिक्त सेशन न्यायाधीश ने सुप्रीम कोर्ट के इसी फैसले के आधार पर पति की अपील मंजूर करते हुए पत्नी का भरण पोषण आदेश निरस्त कर दिया था। जिसके विरुद्ध रिजवाना की ओर से हाईकोर्ट में अपील पेश की गई। रिजवाना के अधिवक्ता हैदर आगा ने बहस के दौरान तर्क दिए कि घरेलू हिंसा अधिनियम का प्रभाव भूतलक्षी है और यहां तक कि अधिनियम लागू होने से पहले यानी वर्ष 2005 से पहले की तलाकशुदा महिलाएं भी इस अधिनियम के तहत अनुतोष की मांग कर सकती हैं। उन्होंने कहा कि सुप्रीम कोर्ट का निर्णय अलग तथ्यों के आधार पर दिया गया था। उनका यह भी तर्क था कि घरेलू हिंसा अधिनियम की धारा 12 की कार्रवाई अपने आप में कोई आपराधिक कार्रवाई नहीं है। इस कारण इस कार्रवाई पर धारा 468 दण्ड प्रक्रिया संहिता में बताई गई परिसीमा लागू नहीं होती। दोनों पक्षों की बहस सुनने के बाद हाईकोर्ट ने अधीनस्थ अदालत द्वारा पति के पक्ष में दिए गए फैसले को अपास्त कर दिया व पत्नी रिजवाना को भरण पोषण का अधिकारी माना। हाईकोर्ट ने यह भी आदेश दिया कि पत्नी ने जो गुजारा भत्ता बढ़ाने का प्रार्थना पत्र पेश किया है, उस पर बहस सुनी जाकर उचित आदेश पारित किया जाए।
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