अभिषेक
मिश्रा, लखनऊ। राज्य में अभी तक गठबंधन का इतिहास
बहुत सफल नहीं रहा हैं।
2017 के इस चुनाव में कांग्रेस-सपा, भाजपा-अपना
दल व भासपा का गठबंधन है,
लेकिन यह कितना सफल होगा? यह कहना अभी मुश्किल है।
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अगर
इतिहास पर नजर डाले तो चुनाव पूर्व
गठबंधनों में केवल 1993 में सपा-बसपा गठबंधन की सरकार ही बन सकी है।
गठबंधन की यह सरकार भी बहुत ज्यादा दिनों तक नहीं चल सकी। 1993 में समाजवादी
पार्टी के अध्यक्ष मुलायम सिंह यादव और बहुजन समाज पार्टी के अध्यक्ष कांशीराम ने
चुनावी गठबंधन किया। गठबंधन में सपा के हिस्सें में 256 सीटें और बसपा
ने 164 सीटें लीं। चुनाव परिणाम जब सामने आये तो समाजवादी पार्टी ने 109 सीटें
और बसपा ने 67 सीटें जीतीं। यह गठबंधन आपसी शर्तों के बाद प्रदेश में
सत्तासीन हो गया। मुलायम सिंह यादव दूसरी बार मुख्यमंत्री बने। बाद में आपसी
खींचतान के चलते सपा-बसपा अलग हो गये। प्रदेश की जनता को एक बार फिर वर्ष 1996 में
विधानसभा चुनाव का सामना करना पड़ा। सत्ता का सुख भोग चुकी बसपा ने इस बार
कांग्रेस से गठबंधन कर चुनावी नैया पार करने की रणनीति बनायी। इस बात पर सहमति बनी
कि कांग्रेस 126 सीटों पर चुनाव लड़ेगी और बसपा 296 सीटों पर।
परिणाम सामने आये तो बसपा ने केवल 67 सीटें
जीतीं और कांग्रेस ने 33 सीटें। दोनों दल सत्ता से काफी दूर हो गये।
किसी दल को बहुमत नहीं मिला तो राष्ट्रपति शासन लगाना पड़ा। एक साल तक निलम्बित
रही विधानसभा को गठित करने के लिए भाजपा ने बसपा से टूटकर आए विधायकों के सहयोग से
नई सरकार का गठन कर लिया। कई बदलावों व राजनीतिक टूट-फूट और उठा-पटक के बीच जब वर्ष 2002 में
विधानसभा चुनाव हुए तो भाजपा-रालोद का गठबंधन हो गया। परिणाम आने पर भाजपा केवल 88 सीटें
ही जीत सकी, जबकि हासिये पर चल रहे चौधरी अजित सिंह को 38 सीटों
में से 14 पर विजय मिलीं। चुनाव बाद किसी दल को स्पष्ट बहुमत न मिलने पर
भाजपा ने मायावती को मुख्यमंत्री बनाकर फिर से अपना समर्थन दे दिया। बाद में भाजपा
ने सरकार से समर्थन वापस ले लिया और सुश्री मायावती की सरकार गिर गयी।
भाजपा ने वर्ष 2007 में अपना दल के साथ
गठबंधन किया तो भाजपा की सीटें घटकर 51 रह गयीं, जबकि उसके सहयोगी
अपना दल को चार तथा जनता दल को दो सीटें मिलीं। अकेले अपने दम पर 206 सीटें
पाकर बसपा प्रदेश की सत्ता पर काबिज हुई। इसके बाद 2012 में हुए
विधानसभा चुनाव में भाजपा का भारतीय जनवादी पार्टी से गठबंधन हुआ। इसका लाभ न
भाजपा को मिला और न ही जनवादी पार्टी को, बल्कि भाजपा और नीचे सरक गयी।
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