वैश्विक आर्थिक गतिविधियों में ठहराव का यह दौर बेशक चिंताजनक है, लेकिन पर्यावरण पर इसका अप्रत्याशित सकारात्मक असर दुनिया के लिए चेतावनी और सीख दोनों है। अनजाने में ही सही, जब मनुष्य ने अपनी गतिविधियाँ रोक दीं, तो कुदरत जैसे खुलकर सांस लेने लगी। पिछले कुछ महीनों से नदियों के बहाव में पारदर्शिता लौट आई, वायु प्रदूषण में अभूतपूर्व कमी देखी गई और आकाश फिर से नीला हो गया। यह सब देख कर मानो कुदरत पुकार कर कह रही हो— "हे मानव! अब तो संभल जा, पढ़ मेरी पीर!"
पांच साल पहले कोविड-19 के कारण लागू लॉकडाउन ने इंसानी गतिविधियों को थाम दिया। औद्योगिक उत्सर्जन, वाहनों का धुआं और अनावश्यक यात्रा सब पर रोक लगी। इसके परिणामस्वरूप, वायुमंडल में कार्बन डाइऑक्साइड और नाइट्रोजन ऑक्साइड जैसी गैसों का स्तर घटा, जिससे दुनिया भर के बड़े शहरों में वायु गुणवत्ता में बेहतरी देखी गई। शोध बताते हैं कि साल 2020 में वैश्विक कार्बन उत्सर्जन में 5% की रिकॉर्ड कमी दर्ज हुई। यह बताता है कि वायु प्रदूषण की जड़ें हमारी जीवनशैली में छिपी हैं।
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उत्तर भारत की मैदानी जमीनों से हिमालय के हिमाच्छादित शिखरों का दीदार संभव हुआ। यह सब इसलिए हुआ क्योंकि मनुष्य ने एक बार के लिए ‘ठहरना’ सीखा। यह एक ऐसा ठहराव था जिसमें धरती को आराम मिला और पर्यावरण को राहत।
पाँच साल पहले लॉकडाउन एक आपातकालीन परिस्थिति थी, न कि समाधान। लेकिन इसने हमें यह अहसास जरूर दिलाया कि प्रदूषण और पारिस्थितिकीय क्षरण मानव निर्मित हैं और इन्हें कम किया जा सकता है— अगर राजनीतिक इच्छाशक्ति और नागरिक संकल्प हो। लेकिन अफसोस, जैसे-जैसे लॉकडाउन हटा, वैसे-वैसे सब कुछ पहले जैसा होने लगा। प्रदूषण लौट आया, नदियाँ फिर से काली होने लगीं, कारखानों का धुआं फिर से आसमान ढंकने लगा।
महान भौतिक विज्ञानी स्टीफन हॉकिंग ने चेतावनी दी थी कि यदि मनुष्य ने अपनी जीवनशैली और पर्यावरण के प्रति व्यवहार नहीं बदला तो उसे पृथ्वी को छोड़कर किसी अन्य ग्रह की शरण लेनी पड़ेगी। उनके अनुसार पृथ्वी की शेष उम्र महज 200 से 500 वर्षों की है। वे भविष्यवाणी करते थे कि या तो किसी धूमकेतु का टकराव, या सूर्य की विकिरण, या कोई महामारी पृथ्वी से जीवन मिटा देगी। कोविड-19 जैसी महामारी उनके कथन को और भी भयावह यथार्थ में बदल देती है।
हमें यह स्वीकारना होगा कि अब विकास की परिभाषा बदलने की जरूरत है।
‘अर्थव्यवस्था की वृद्धि’ तब तक अधूरी है जब तक वह पारिस्थितिकीय स्थिरता को न छूती हो। हमें ‘स्मार्ट ग्रोथ’ से आगे बढ़कर ‘ग्रीन ग्रोथ’ की दिशा में सोचना होगा। कम कार्बन उत्सर्जन वाली जीवनशैली अपनाना अब विकल्प नहीं, आवश्यकता बन चुकी है। यानी ऐसी जीवनशैली जो प्रकृति के साथ सामंजस्य में हो—उदाहरणस्वरूप साइकिल चलाना, सार्वजनिक परिवहन का उपयोग, स्थानीय उत्पादों को प्राथमिकता, ऊर्जा की बचत और उपभोग में संयम।
भारत और विश्व के लिए अब समय है कि वह अपने उद्योग और परिवहन व्यवस्था को पर्यावरण-अनुकूल बनाए। जीवाश्म ईंधन पर निर्भरता कम करते हुए सौर, पवन और अन्य हरित ऊर्जा स्रोतों की ओर अग्रसर होना होगा। वाहनों में इलेक्ट्रिक टेक्नोलॉजी का उपयोग बढ़ाना, रेलवे और सार्वजनिक परिवहन को सुलभ और स्वच्छ बनाना हमारी प्राथमिकता होनी चाहिए।
यह बदलाव न केवल प्रदूषण कम करेगा, बल्कि स्वास्थ्य सेवाओं पर दबाव भी घटाएगा।
वायु प्रदूषण से हर साल दुनिया भर में लगभग 70 लाख मौतें होती हैं। यह आंकड़ा जलवायु संकट की गंभीरता को दर्शाता है।
हमें ब्लैक कार्बन, मीथेन, हाइड्रोफ्लोरोकार्बन, ट्रोपोस्फेरिक ओजोन जैसे अल्पकालिक जलवायु प्रदूषकों को कम करने के लिए तत्काल नीतिगत फैसले लेने होंगे। इन गैसों का प्रभाव जलवायु पर तुरंत पड़ता है और इन्हें नियंत्रित करना तुलनात्मक रूप से आसान है।
भारत को एक राष्ट्रीय जनजागरूकता अभियान चलाना चाहिए जो जलवायु परिवर्तन, प्रदूषण, जल और ऊर्जा संरक्षण जैसे मुद्दों को स्कूल-कॉलेजों से लेकर पंचायत स्तर तक ले जाए। क्योंकि यदि हमने पर्यावरण को नहीं समझा, तो कोविड-19 जैसे संकट आम बात हो जाएंगे।
कोरोना संकट ने हमें बहुत कुछ सिखाया—कैसे कम संसाधनों में भी जीवन जीया जा सकता है, कैसे घर में रहकर काम किया जा सकता है, कैसे जरूरतों को सीमित किया जा सकता है। यह एक 'प्राकृतिक अनुशासन' था जिसने हमें हमारे अति-उपभोक्तावाद पर सोचने को मजबूर किया। अब हमें चाहिए कि इस संकट से निकली सीख को भविष्य की नीतियों और जीवनशैली में जगह दें।
यह एक मौका है—एक 'रीसेट बटन'। प्रकृति ने हमें चेताया है, अब हमें प्रतिक्रिया देनी होगी।
हमारी धरती सिर्फ एक ग्रह नहीं, हमारा घर है। हमने उसे मां कहा है, लेकिन व्यवहार उपभोक्ता जैसा किया है। अब समय है कि हम केवल ‘धरती माता की जय’ बोलने की जगह धरती माता की रक्षा में खड़े हों। हमें जंगलों, नदियों, पहाड़ों, पशु-पक्षियों और पूरे जैव विविधता तंत्र को बचाना होगा।
"धरती खाली-सी लगे, नभ ने खोया धीर! अब तो मानव जाग तू, पढ़ कुदरत की पीर!"
जलवायु परिवर्तन केवल पर्यावरण का मसला नहीं है, यह सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक चुनौती भी है। यदि हमने पर्यावरण को अनदेखा किया, तो कृषि, स्वास्थ्य, रोजगार, और खाद्य सुरक्षा जैसे क्षेत्र भी संकट में आ जाएंगे। आज की सबसे बड़ी ज़रूरत यह है कि हम विज्ञान, तकनीक और परंपरागत ज्ञान के समन्वय से ऐसी नीतियां बनाएं जो टिकाऊ विकास को संभव बनाएं। स्कूलों में जलवायु शिक्षा हो, गाँवों में हरित रोजगार के अवसर हों, शहरों में स्वच्छ परिवहन और स्वच्छ ऊर्जा की व्यवस्था हो।
यह संघर्ष "मनुष्य बनाम प्रकृति" का नहीं होना चाहिए। यह साझेदारी "मनुष्य + प्रकृति" की होनी चाहिए। प्रकृति को जीतना नहीं, समझना और संजोना है। कोविड-19 ने इस सच को हमारे सामने रख दिया है। अब यह हम पर है कि हम इस सच्चाई को स्वीकार करें या फिर विनाश की ओर आंख मूंद कर बढ़ते रहें।
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