निर्देशक के तौर पर भी रामगोपाल वर्मा खरे नहीं उतरते हैं। रामगोपाल वर्मा हिन्दी सिनेमा के वो निर्देशक रहे हैं, जिन्होंने इस इंडस्ट्री को एक नया स्वरूप देने में बहुत बडा योगदान दिया है। हालांकि पिछले कुछ समय से वो अपना शुरुआती दौर वाला करिश्मा नहीं दिखा पा रहे हैं, जिसके लिए वो कभी लोगों के बीच मशहूर हुआ करते थे। इस बार भी कुछ वैसा ही हुआ है। इस फिल्म को देखते हुए रामगोपाल वर्मा की कमी स्पष्ट तौर पर नजर आती है। हालांकि रामगोपाल वर्मा ने फिल्म की तकनीकी बातों का खासा ख्याल रखा है, उन्होंने दृश्यों के फिल्मांकन के वक्त उन्हें नए तरीके से लिया है, कैमरा एंगल्स के साथ खेलना, फोकस और डी-फोकस से अपने किरदारों को धार देना लेकिन इन सारी चीजों में फिल्म की कहानी कहीं पीछे छूट गई। फिल्म का पूर्वाद्र्ध जितना सशक्त है, उत्तराद्र्ध उतना ही नीरस। मध्यान्तर के बाद फिल्म वर्मा फिल्म को समेटते हुए नजर आए हैं, जिसके चलते कथानक का क्रम बिगड गया है। साथ ही इस भाग में संपादन की जल्दबाजी स्पष्ट नजर आती है। दृश्यों को कम करने के चक्कर में वे कथानक से मेल नहीं खा पाते हैं। साथ ही उनका तारतम्य भी आपस में नहीं बैठता है।
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