अफसोस इस बात का है कि समाज को ज्ञान देने वाले फिल्मकारों का सारा काम अंग्रेजी में होता है। हिंदी तो मजबूरी है देश के दर्शकों के बीच पहुंचने के लिए। फिल्म की कहानी एक ऐसे कपल की है जो अपनी बच्ची को एक अच्छे अंग्रेजी माध्यम स्कूल में दाखिला दिलाना चाहता है। फिल्म का पूरा ताना बाना इसी पर बुना गया है जिसमें निर्देशक ने शुरूआत में पकड मजबूत रखी है लेकिन जैसी ही फिल्म गरीबी के तमाशे पर आती है वह अपनी पकड ढीली कर देती है। गरीबी का तमाशा शुरू होते ही फिल्म के विषय की सांद्रता व गंभीरता ढीली और हल्की शुरू होने लगती है। गरीबी की बातें करते हुए फिल्मकार फिल्मी समाज रचने लगते हैं। इस फिल्म में भी यही होता है। ‘हिंदी मीडियम’ जैसी उम्दा फिल्म का यह सबसे कमजोर अंश है। साकेत चौधरी इस हिस्से को अगर फिल्मी अंदाज के बजाय वास्तविकता के धरातल पर फिल्माते तो निश्चित रूप से यह फिल्म अलग मुकाम पर होती। तारीफ करना चाहेंगे इरफान खान, दीपक डोबरियाल और सबा कमर की जिन्होंने साकेत की ढीली होती पकड को अपनी अदाकारी से संभाला है। तीनों ही शानदार अभिनेता हैं, इसलिए वे पटकथा की सीमा से बाहर जाकर घिसे-पिटे दृश्यों को भी अर्थपूर्ण और प्रभावशाली बनाने में सफल होते हैं।
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