क्या कोई मनुष्य किसी दूसरे मनुष्य से इस कारण मित्रता करता है कि वह पारस्परिक प्रत्युपकारों से वह लाभ प्राप्त करे जो अकेला रह कर नहीं कर सकता? या मित्रता का बन्धन किसी प्राकृतिक ऐसे उदार नियम से संबंधित है जिसके द्वारा एक मनुष्य हृदय दूसरे के हृदय के साथ अधिकाँश में उदारता और निस्वार्थता की भावना के साथ जा जुड़ता है? ये भी पढ़ें - अपने राज्य / शहर की खबर अख़बार से पहले पढ़ने के लिए क्लिक करे
उपरोक्त प्रश्नों की मीमाँसा करते हुए हमें यह जानना चाहिए कि मित्रता के बन्धन का प्रधान और वास्तविक हेतु प्रेम है। कभी-कभी यह प्रेम वास्तविक न होकर कृत्रिम भी हुआ करता है परन्तु इससे यह नहीं कहा जा सकता कि मित्रता का भवन केवल स्वार्थ की ही आधारशिला पर स्थिर है।
सच्ची मित्रता में एक प्रकार की ऐसी स्वाभाविक सत्यता है जो कृत्रिम और बनावटी स्नेह में कदापि नहीं पाई जा सकती। मेरा तो इसीलिए ऐसा विश्वास है कि मित्रता की उत्पत्ति मनुष्य की दरिद्रता पर न होकर किसी हार्दिक और विशेष प्रकार के स्वाभाविक विचार पर निर्भर है जिसके द्वारा एक समान मन वाले दो व्यक्ति परस्पर स्वयमेव संबंधित हो जाते हैं।
यह पुनीत आध्यात्मिक स्नेह भावना पशुओं में भी देखी जाती है। मातायें क्या अपने बच्चों से किसी प्रकार का बदला चाहने की आशा से प्रेम करती हैं? बेचारे पशु जिनको न तो अपनी दीनता का ज्ञान है, न उन्नति की आकाँक्षा है और न किसी सुनहरे भविष्य का प्रलोभन है भला वे अपने बच्चों से किस प्रत्युपकार की आशा करते होंगे? सच तो यह है कि प्रेम करना जीव का एक आत्मिक गुण है। यह गुण मनुष्य में अधिक मात्रा में प्रकट होता है इसलिए वह मित्रता की ओर आकर्षित होता है।
जिसके आचरण और स्वभाव हमारे समान ही हों अथवा किसी ऐसे मनुष्य को जिसका अन्त:करण ईमानदारी और नेकी से परिपूर्ण हो, किसी ऐसे मनुष्य को देखते ही हमारा मन उसकी ओर आकर्षित हो जाता है। सच तो यह है कि मनुष्य के अन्त:करण पर प्रभाव डालने वाला नेकी के समान और कोई दूसरा पदार्थ नहीं है। धर्म का प्रभाव यहाँ तक प्रत्यक्ष है कि जिन व्यक्तियों का नाम हमको केवल इतिहासों से ही ज्ञात है और उनको गुजरे चिर काल व्यतीत हो गया उनके धार्मिक गुणों से भी हम ऐसे मुग्ध हो जाते हैं कि उनके सुख में सुखी और दुख में दुखी होने लगते है।
मित्रता जैसे उदार बन्धन के लिए ऐसा विचार करना कि उसकी उत्पत्ति केवल दीनता पर ही है अर्थात् एक मनुष्य दूसरे से मित्रता केवल इसीलिए करता है कि वह उससे कुछ लाभ उठाने और अपनी अपूर्णता को उसकी सहायता से पूर्ण करे, मित्रता को अत्यन्त ही तुच्छ और घृणित समझना हं। यदि यह बात सत्य होती तो वे ही लोग मित्रता जोडऩे में अग्रसर होते जिनमें अधिक अवगुण और अभाव हों परन्तु ऐसे उदाहरण कहीं दिखाई नहीं पड़ते। इनके विपरीत यह देखा गया है कि जो व्यक्ति आत्मनिर्भर हैं, सुयोग्य हैं, गुणवान हैं, वे ही दूसरों के साथ प्रेम व्यवहार करने को अधिक प्रवृत्त होते हैं। वे ही अधिकतर उत्तम मित्र सिद्ध होते हैं।
सच तो यह है कि परोपकार अपने उत्तम कार्यों का व्यापार करने से घृणा करता है और उदार चरित्र व्यक्ति अपनी स्वाभाविक उदारता का आचरण करने दूसरों को सुख पहुँचाने में आनन्द मानते हैं वे बदला पाने के लिए अच्छा व्यवहार नहीं करते। मेरा निश्चित विश्वास है कि सच्ची मित्रता लाभ प्राप्त करने की व्यापार बुद्धि से नहीं जुड़ती, वरन् इसलिए जुड़ती है कि मित्रभाव के निस्वार्थ बर्ताव से एक प्रकार का जो आध्यात्मिक सुख मिलता है वह प्राप्त हो।
बेटी मालती मैरी को पहली बार भारत लेकर आए प्रियंका चोपड़ा और निक जोनस...देखें तस्वीरें
रजनीकांत की बाबा की असफलता से खत्म हुआ मेरा साउथ करियर : मनीषा कोइराला
टीनएज लव पर आधारित गुनीत मोंगा की 'गुटर गू'
Daily Horoscope