इस विश्व में जो श्रेष्ठता, सौंदर्य और महानता दिखाई पड़ती है, वह मनुष्य के सद्विचारों और सत्कर्मों का ही परिणाम है। अपनी अच्छी-बुरी भावनाओं के अनुसार ही जीवन में क्रियाशीलता उत्पन्न होती है । जो सोचते हैं वही करते हैं, इसी के अनुरूप अच्छे-बुरे कर्मों का दंड या पुरस्कार मिलता है। कर्म का महत्व जो जी में आये करने से नहीं होता, वरन् उसके भले या बुरे प्रतिफल से होता है। आम का पेड़ लगाना या बबूल बोना दोनों क्रियाएँ एक जैसी हैं। शक्ति उद्यम व साधन दोनों को एक समान ही जुटाने पड़ते हैं। किंतु आम रोपने का प्रतिफल सुंदर स्वाद युक्त फल, सुखद घनी छाया है और बबूल से न तो छाँव मिलती है न मीठे फल। काँटे बिखेर कर दूसरों को दु:ख-पीड़ा पहुँचाने का अपकार ही बबूल से बन सकता था। इसके लिए उसकी सर्वत्र निंदा व भत्र्सना ही की जाती है। ये भी पढ़ें - अपने राज्य / शहर की खबर अख़बार से पहले पढ़ने के लिए क्लिक करे
मनुष्य स्वत: अच्छा या बुरा नहीं है। यह ढलाव तो विचारों के साँचे में होता है। गीली मिट्टी को विभिन्न प्रकार के साँचे में दबाकर भाँति-भाँति के खिलौने बनाते हैं। विचारों के साँचे में व्यक्ति का निर्माण होता है। दूषित स्वार्थपूर्ण विचारों से मनुष्य हीन बनता है। दुष्टतापूर्ण, दुष्कर्मों के कारण वह दु:ख और त्रास पाता है । मंगल-चिंतन व शुभकर्मों से आंतरिक सौंदर्य के दर्शन होते हैं। श्री, समृद्धि और सफलता का सुख मिलता है।
बुरे विचारों की कीचड़ में फँसा हुआ व्यक्ति अपना प्रभाव खो देता है । यद्यपि उसकी नैसर्गिक पवित्रता नष्ट नहीं हुई, उसकी शक्ति ज्यों की त्यों बनी हुई है, किंतु मान गिर गया, कीमत गिर गई। कुविचार और कुकर्म सदैव मनुष्य को अधोगामी ही बनाते हैं।
देखने में आता है कि लोग प्राय: दूसरों के ऐब निकालते रहते हैं, यह क्रोधी है, यह निकम्मा है, दृढ़ता पूर्वक न्यायिक दृष्टि से निरीक्षण करने पर हमें अपने आप में ही अनेक दोष दिखाई दे जाते हैं, नहीं तो यह छिद्रान्वेषण की प्रवृत्ति ही किस अपराध से कम है। निरंतर बुरे विचार करते रहने से अशुभ कर्म ही बन सकते हैं। कटुता, कलह, द्वेष दुर्भाव, विभाजन तथा असहयोग ही इसके परिणाम हो सकते हैं ।
स्वभावत: मनुष्य की इच्छाओं में बहुत कुछ समानता होती है। दूसरों से प्रेम, स्नेह, आत्मीयता, सहयोग और सहानुभूति की अपेक्षा सभी रखते हैं, पर जब व्यावहारिक रूप में हम दूसरों के साथ ऐसा बर्ताव नहीं करते तो इसे कुविचार माना जाता है। अपने अहंकार को श्रेष्ठ मानना और अपनी इच्छाओं की उचित अनुचित किसी भी तरह की पूर्ति करने को ही पाप माना गया है। अपकार को पाप कहते हैं, क्योंकि यह दुर्भावनाओं के कारण होता है । परोपकार पुण्य है, क्योंकि यह सद्भावना का प्रतीक है। संक्षेप में मंगलमय कामनाएँ पुण्य और स्वार्थपूर्ण भावनाओं को ही पाप कहा जा सकता है ।
उपरोक्त प्रवचन पंडित श्रीराम शर्मा आचार्य द्वारा लिखित पुस्तक हम बदलें तो दुनिया बदले के पृष्ठ 157 से लिया गया है।
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