"चिंता" एक विनाशक वृत्ति है,
जो मनुष्य की शक्ति और समय का अनावश्यक मात्रा में क्षरण करती रहती है। जिस शक्ति के
द्वारा मनुष्य अपना स्वास्थ्य सुधार सकता था, आजीविका कमा सकता था, विद्याध्ययन अथवा
कोई उपयोगी कला सीख सकता था वह व्यर्थ ही बरबाद हो जाती है। जितने समय को वह शारीरिक,
मानसिक, आर्थिक अथवा किसी अन्य प्रयोजन में, विकास के काम में लगा सकता था, उसे छोटी-छोटी
बातों की चिंताओं में ही गँवाता रहता है। मनुष्य-जीवन किसी महान उद्देश्य की पूर्ति
के लिए मिलता है, इसे छोटी-छोटी बातों की चिंताओं में गँवा देना समझदारी की बात नहीं।
अपने जीवन लक्ष्य को समझना और उसमें अंत तक तत्परतापूर्वक लगे रहना तभी संभव हो सकता
है जब चिंताओं से छुटकारा पाएँ, इनसे दूर रहें और इनसे क्षरित होने वाली शक्तियों को
बचाकर अपने निर्दिष्ट लक्ष्य की प्राप्ति में लगाएँ। ये भी पढ़ें - अपने राज्य / शहर की खबर अख़बार से पहले पढ़ने के लिए क्लिक करे
चिंताओं से मनुष्य की रचनात्मक क्रियाशक्ति
में थोड़ी कमी हो जाती अथवा थोड़ा समय ही बरबाद होकर रह जाता तो भी विशेष हानि न थी।
दैनिक कार्यों में चलने, उठने, बैठने और अन्य कई ऐसे कार्य होते हैं जिनमें निष्प्रयोजन
कुछ शक्ति भी लग जाती है, कुछ समय भी। किंतु उसकी हानि भी वहाँ समाप्त हो जाती है।
पर "चिंताएँ" अपने पीछे भी एक विषाक्त वातावरण बना देती हैं जो मनुष्य की
जीवन- शक्ति का चिरकाल तक शोषण करती रहती हैं। इनसे जितना ही बचाव किया जाता है ये
शहद की मक्खी की तरह उतना ही पीछा करतीं और अपने विषदंश चुभोती रहती हैं। मनुष्य चिंताओं
के जाल में फँसकर अपनी मौत के ही सरंजाम जुटाता रहता है। जीवन-मृत्य अकाल-मृत्यु की
ओर तेजी से ले जाने वाली यह चिंताएँ ही होती है। किसी कवि ने लिखा है-
चिंता चगुल ही पर्यो, तो न चिता को शङ्क
।
यह सोखेँ बूँदन जियत, मुए जात वा अङ्क।।
चिता तो मुरदा को जलाती है, किंतु चिंता
तो जीवित मनुष्य को तिल-तिल घुला कर मारती
है।
चिंताओं से मस्तिष्क के अंतराल में काम करने वाली सेल व फाइवर
शक्तियों से किस प्रकार जीवन-शक्ति का तड़ित क्षरण होता है। इसका पता जर्मनी के डॉक्टरों
ने एक प्रयोग से लगाया। किसी पूर्ण स्वस्थ व्यक्ति को अचानक चिंताजनक समाचार सुनाया
गया। इससे घबराकर वह उठने लगा तो उसे चक्कर आ गया और वह गिर गया। डॉक्टरों ने शारीरिक
परीक्षा के बाद देखा कि उसकी इतनी शक्ति एक ही झटके में समाप्त हो गई जिससे वह एक सप्ताह
तक लगातार श्रम कर सकता था। चिंताएँ मस्तिष्क को उत्तेजित करती हैं जिससे शक्ति का
बुरी तरह अपव्यय होता रहता है। इससे मनुष्य के सौंदर्य, शारीरिक बल और ज्ञान का नाश
होता रहता है।
उपरोक्त प्रवचन पंडित श्रीराम शर्मा आचार्य
द्वारा लिखित पुस्तक निर्भय बनें, शांत रहें➖
पृष्ठ-11 से लिया गया है।
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