मनुष्य का "समय" मनोयोग एवं परिश्रमपूर्वक किसी दिशा में भी लग जाए, उसी में चमत्कार उत्पन्न हो जाएगा। संसार के महापुरुषों की प्रधान विशेषता यही रही है कि उन्होंने अपने जीवन का एक-एक क्षण निरंतर काम में लगाए रखा है। वह भी पूरी दिलचस्पी और श्रमशीलता के साथ। यह रीति-नीति जो आदमी अपनाले और अपने जीवन-क्रम की दिशा निर्धारित कर ले, वह हर क्षेत्र में सफलता की ऊँची मंजिल पर सहज ही पहुँच सकता है। मनुष्य की सामर्थ्य का अंत नहीं, पर कठिनाई इतनी ही है कि वह चारों तरफ बिखरी और अस्त-व्यस्त पड़ी रहती है। उसका एकीकरण, केंद्रीकरण जो व्यक्ति कर लेगा, अपनी प्रचुर शक्ति का परिचय सहज ही दे सकेगा।
योजनाबद्ध कार्य-निर्धारण करने और उसका तत्परतापूर्वक निर्वाह करने से ही विज्ञजन अनेकानेक सफलताएँ अर्जित करते हैं। "समय" ईश्वर-प्रदत्त संपदा है, उसे श्रम में मनोयोगपूर्वक नियोजित करके विभिन्न प्रकार की संपदाएँ, विभूतियाँ अर्जित की जा सकती हैं। जो समय गँवाता है, उसे जीवन गँवाने वाला कहा जाता है। कौन कितने दिन जिया, इसका लेखा-जोखा जन्मदिन से लेकर मरणपर्यंत के दिन गिनकर नहीं, वरन इस आधार पर लगाया जाना चाहिए कि किसने अपने समय का उपयोग महत्त्वपूर्ण प्रयोजनों के लिए किया। "समय" के सच्चे पुजारी एक क्षण भी नष्ट नहीं होने देते, अपने एक- एक क्षण को हीरे-मोतियों से तोलने लायक बनाकर उसका सदुपयोग करते हैं और सफल और श्रेयाधिकारी महामानव बनते हैं ।
जो "समय" का सुदपयोग नहीं कर पाते, वे जीवन जीते नहीं, काटते हैं, नष्ट करते हैं। कोई कितने वर्ष जिया यह जीवन नहीं, किसने कितने "समय" का सदुपयोग कर लिया, वही जीवन की लंबाई है।"
"समय" की बरबादी का अर्थ है-अपने जीवन को बरबाद करना। जीवन के जो क्षण मनुष्य यों ही आलस्य अथवा प्रमाद में खो देता है, वे फिर कभी लौटकर वापस नहीं आते। जीवन प्याले की जितनी बूँद गिर जाती हैं, प्याला उतना ही खाली हो जाता है। प्याले की वह रिक्तता फिर किसी भी प्रकार भरी नहीं जा सकती। मनुष्य जीवन के जितने क्षणों को बरबाद कर देता है, उतने क्षणों में वह जितना काम कर सकता था, उसकी कमी फिर वह किसी प्रकार भी पूरी नहीं कर सकता।
उपरोक्त प्रवचन
पंडित श्रीराम शर्मा आचार्य द्वारा लिखित पुस्तक संतुलित जीवन के व्यावहारिक सूत्र पृष्ठ-04 से लिया गया है।
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