अव्यवस्थित वाणी सबसे अधिक खतरनाक है। निंदा-चुगली से
अन्य लोगों के प्रति तो विद्वेष पैदा होता ही है, साथ ही लोगों को यह भी अनुभव होने
लगता है कि अपनी कही बात इसके पेट में पड़ जाने पर इधर-उधर फैले बिना रहेगी नहीं। इस
आशंका के कारण उसे अविश्वासी बनकर रहना पड़ता है और कोई स्वजन भी उसके सामने पेट खोलकर
बात नहीं करता । ये भी पढ़ें - अपने राज्य / शहर की खबर अख़बार से पहले पढ़ने के लिए क्लिक करे
क्रोध, आवेश के द्वारा होने वाली क्षति का हाथों-हाथ दुष्परिणाम देखा जा सकता है। कटु
वचन कहते देर नहीं होती कि प्रत्युत्तर और भी बड़े रूप में सामने आने लगता है। कई बार
तो कटु वचनों का प्रभाव इतना भयंकर होता है
कि वह स्थायी जड़ जमा लेता है और समय आने पर प्रतिशोध का सर्प बनकर डसता रहता है। द्रौपदी
द्वारा दुर्योधन को कहे गए व्यंग्य वचन, कालांतर में महाभारत जैसे महाविनाश के निमित्त
कारण बने।
अपना अहंकार और दूसरों का असम्मान ही मिलकर, कटु वचन और अशिष्ट व्यवहार के रूप में
प्रकट होता है। यह दोनों ही परस्पर एकदूसरे से बढ़कर हैं। इनके योग से मिला हुआ कटु
भाषण यों दृश्य रूप में तो कोई बड़ी बात प्रतीत नहीं होता, पर उसकी परिणति ऐसी होती
हैं, जिसके कारण खोदी गई खाई कदाचित कभी न पाटी जा सके।
"शिष्टता" और "शालीनता" का ध्यान रखकर बोली गई वाणी सदा नम्रता
और मधुरता से भरी-पूरी ही होती है। उसका प्रभाव बदले हुए तेवरों को यथा स्थान लाने
में समर्थ होता है। मधुरभाषी लोग वैमनस्य को शांत करते और सद्भावना का नए सिरे से शुभारंभ
करते देखे गए हैं। इस बुराई को छोड़ देना और उसे अच्छाई के रूप में बदल लेना यह कुछ
ही दिनों के अभ्यास पर निर्भर है। अपने आप पर नम्रता का आरोपण करते हुए, दूसरों को
मानवोचित सम्मान प्रदान करते हुए, सोच-समझकर बिना उतावली अपनाए बोला जाए, तो उसका सत्परिणाम
सुखद प्रतिक्रिया के रूप में परिलक्षित होता देखा जा सकेगा। शिष्टता, सज्जनता, मधुरता
जैसी विशेषताओं से संभाषण कर सकना थोड़े दिनों के अभ्यास पर निर्भर है। कटु वचनों को
सर्प के दाँत और बिच्छु के डंक के समतुल्य माना जाए, तो कुछ अत्युक्ति न होगी। जिनमें
यह दुर्गुण थोड़े अंशों में भी स्वभाव का अंग बन गया हो, उन्हें उसका निराकरण करने
के लिए तत्काल प्रबल प्रयत्न आरंभ कर देना चाहिए । यह कौए और कोयल में, बगुले का हंस
में कायाकल्प हो जाने जैसी कहावत का प्रत्यक्ष दर्शन है ।
उपरोक्त प्रवचन पंडित श्रीराम शर्मा आचार्य द्वारा लिखित पुस्तक व्यवस्था बुद्धि की
गरिमा पृष्ठ-24 से लिया गया है।
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