अपनी वस्तु स्थिति एक सीमा तक ही छुपाकर रखी जा सकती है। व्यक्तित्व में इतने अधिक छिद्र होते हैं कि उनमें होकर वस्तुस्थिति की झाँकी-गंध दूसरों तक पहुँच जाती है। उस पर देर तक पर्दा नहीं डाला जा सकता। जिन वस्तुओं को छुपाया जा सकता है, वे दूसरी हैं। उनमें व्यक्तित्व की गणना नहीं होती। हम जहाँ भी जायेंगे वहीं हमारा व्यक्तित्व वस्तुस्थिति का अनचाहे ही प्रदर्शन-प्रकटीकरण करता रहेगा। उसे आवरणों में ढकने के सारे प्रयास निष्फल होते हैं। जो जैसा है, वह लोगों की आँखों में आकर ही रहेगा। कृत्रिम निंदा या स्तुति से भले को बुरा और बुरे को भला बताने के लिए कितने ही आडंबर क्यों न रखे जायें, वे देर तक काम न दे सकेंगे। यथार्थता हजार पर्दे फाड़ कर बाहर आ जाती है। पारे को खाकर पचाया नहीं जा सकता। वह शरीर से फूटकर बाहर निकलता ही है। ठीक इसी प्रकार चरित्र की अवांछनीयताएँ कल नहीं तो परसों प्रकट होकर ही रहती हैं, और उसकी दुर्गंध हवा में सहज ही उड़ती चली जाती है।
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चरित्र से वाणी में सामथ्र्य उत्पन्न होती है। चिंतन और क्रिया का समन्वय ही चरित्र है। पूरब की सोचने वाले और पश्चिम को चलने वाले उपहासास्पद होते हैं। मंजिल तक वे पहुँचते हैं जिनके विचारों और कार्यों की दिशा एक है। भले ही नहीं, बुरे भी इस आधार पर सफल होते हैं। एक वेश्या अपने प्रभाव से सैकड़ों को दुराचारी बना देती है। एक शराबी अपने कई पक्के साथी बना लेता है। चोर, जुआरी, व्यसनी अपना संप्रदाय-परिवार बढ़ाते ही रहते हैं। इसका कारण यह है कि उनके विचार और कार्य एक हैं। जैसा सोचते हैं, वैसा करते भी हैं। जहाँ भी विचार और कर्म का समन्वय होगा वहाँ व्यक्तित्व बनेगा और वही प्रभावोत्पादक शक्ति बढ़ेगी। भले लोगों के संबंध में भी यही सिद्धांत लागू होता है। यदि सद्भावनाएँ और सत्प्रवृत्तियाँ किसी व्यक्ति में विद्यमान होंगी, तो कोई कारण नहीं कि वह दूसरों को उसी दिशा में आकर्षित न कर सके।
उपरोक्त प्रवचन पंडित श्रीराम शर्मा आचार्य द्वारा लिखित पुस्तक भाषण और संभाषण की दिव्य क्षमता- पृष्ठ- 34 से लिया गया है।
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