तैत्तिरीय उपनिषद् में कहा गया है -जिह्वा मधुमत्तमा अर्थात् हे ईश्वर! मेरी यह जिह्वा सदा मधुर वचन बोले । मैं कभी कटु, कर्कश और कुवचन द्वारा अपनी वाणी को कलंकित न करूँ। अत: हम सदा अपने जीवन में, घर में, समाज में प्रत्येक व्यवहार के समय ऐसे ही शब्दों का प्रयोग करें जो मधुर, शिष्ट, उत्साहप्रद और हितकारी हों । ये भी पढ़ें - अपने राज्य / शहर की खबर अख़बार से पहले पढ़ने के लिए क्लिक करे
मीठे और हितकारी वचन वास्तव में ऐसे वशीकरण मंत्र हैं, जिनसे हमारे इष्ट-मित्र, स्वजन-परिजन ही नहीं सारे संसार के लोग हमारी ओर आकर्षित होकर हम पर अपना स्नेह लुटा सकते हैं। फिर क्यों व्यर्थ ही हम कटु, अभद्र एवं अशिष्ट शब्दों के उच्चारण द्वारा अपने चारों ओर के वातावरण को कलुषित और अमंगल जनक बनाकर अपने तथा दूसरों के जीवन को कष्टप्रद एवं अशांत बनाने की चेष्टा करें ।
मन में सदा अच्छे संकल्प करते रहिए और वाणी से सदा मधुर एवं हितकारी वचन ही बोलिए। अपने मन को हमेशा सत्संकल्प पूर्ण वाणी से संबोधित करते हुए उसे सन्मार्ग पर चलने की प्रेरणा देते रहें । मन को एकाग्र और शांत कर एकांत में ऐसे शब्दों का उच्चारण कीजिए जिससे उसे नई चेतना और नई प्रेरणा मिले। जैसे कहिए कि -मेरा मन असीम शक्ति का भंडार है, मैं उससे अपनी इच्छानुकूल कार्य ले सकता हूँ । मेरा मन इंद्रियों का दास नहीं, पर मैं उनका स्वामी है। वह इंद्रियों को विषयों की ओर कदापि नहीं बढऩे देगा।
मन इंद्रियों का स्वामी है पर मैं मन का भी स्वामी हूँ अर्थात मन पूर्णत: मेरे वश में है। मैं उसे हर प्रलोभन से बचाए रखने की क्षमता रखता हूँ और उसे कुमार्ग से हटाकर सन्मार्ग पर चलाने की भी मुझमें पू्र्ण शक्ति है। सारी इंद्रियाँ और मन मेरे आज्ञाकारी हैं और मैं उन्हें हरदम ठीक रास्ते से चलने की ही प्रेरणा दिया करता हूँ। आप इस प्रकार के आत्म-निर्देशपूर्ण शब्दों द्वारा अपनी मानसिक शक्ति और आत्मबल को पर्याप्त मात्रा में बढ़ाकर जीवन को पवित्र, सुखी और संपन्न बना सकते हैं।
उपरोक्त प्रवचन पंडित श्रीराम शर्मा आचार्य द्वारा लिखित पुस्तक सिद्धिदात्री वाक्-साधना- पृष्ठ- 9 से लिया गया है।
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