अनावश्यक वासनाओं और तृष्णाओं से भी पहले शारीरिक स्वाभाविक
आवश्यकताएँ, नित्यकर्म, आहार विहार, रोजी - रोटी, परिवार-पोषण जैसे आवश्यक कार्यों
की पूर्ति इस जमाने में इतनी विषम हो रही है कि उनकी पूर्ति में भी बहुत समय लगता है।
फिर शत्रुओं द्वारा, मित्रों द्वारा कोई न कोई परेशानी भी समय-समय पर उत्पन्न की जाती
रहती है। सामाजिक रीति-रिवाजों का बोझा रहता है और यदाकदा आकस्मिक- अप्रत्याशित आपत्तियां
भी सामने आ खड़ी होती हैं। इनमें समय लगाना पड़ता है।
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अधिकांश लोग सचमुच ही बहुत व्यस्त रहते हैं। उनके पास समय
का वास्तव में ही अभाव रहता है। आत्म-कल्याण के कार्यों के लिए जब वे यह कहते हैं कि "क्या करें, हमें फुरसत नहीं मिलती"
तो उनकी सच्चाई पर अविश्वास नहीं होता। वस्तुतः हमारी आज की समस्याओं का जो रूप बन
गया है वह ऐसा ही पेचीदा है कि उससे किसी का आध्यात्मिक कार्यों के लिए समय निकाल सकना
असंभव नहीं तो कठिन अवश्य हैं।
इतना होते हुए भी एक बात अत्यंत गम्भीरता के साथ विचार
करने की है कि यदि आज ही हमारा जीवन समाप्त हो जाए और मृत्यु सामने आ खड़ी हो तो फिर
वे समस्याएँ, आकांक्षाएँ और चिंताएँ किस प्रकार सुलझेंगी जो हमें अभी निरंतर परेशान
करती रहती हैं? जीवन को पानी के बुलबुले की
तरह क्षणिक कहा गया है सो असत्य नहीं है। भरी जवानी में, उठती उम्र के नौजवानों की
लाशें रोज ही आँखों के आगे से गुजरती हैं। फूल से कोमल बच्चे देखते-देखते मुरझा जाते
हैं, *फिर हमारे ही बारे में क्या निश्चय है कि सौ वर्ष की आयु तक जीवित रहने का अवसर
मिलेगा ही ? दिन जिस तेजी में गुजरते हैं उसे देखते हुए सौ वर्ष भी कुछ ही दिनों में
बीत सकते हैं । हम लोग इतनी आयु पूरी कर चुके, लगता है अभी कल-परसों तक बचपन के खेल
खेलते थे पर आज अधेड़ हो चले। यही क्रम कुछ दिन चलते रहने पर बुढ़ापा भी सामने आ पहुँचा
और मृत्यु भी दूर नहीं है। जिस दिन इस शरीर को त्यागकर हमारा प्राण आकाश में विचरण
कर रहा होगा, वह दिन अब बहुत दूर नहीं है। सोचने की बात है कि यदि वह दुःखद घड़ी कल
ही सामने उपस्थित हो जाए तो जिन व्यस्तताओं में से घड़ी भर भी हमें परमार्थ के लिए
समय नहीं मिलता, वे सुलझ जावेगी या उलझी ही पड़ी रहेंगी ?
जीवन का वास्तविक स्वरूप न समझने के कारण ही हम इतनी परेशानियों
में फँसते और समस्याओं में उलझते हैं। यह शरीर हमें एक औजार की तरह, एक वाहन की तरह
उपयोग करने के लिए मिला हुआ है। घोड़ा जिसके पास होता है वह मालिक अपने इस वाहन की
आवश्यक देखभाल और व्यवस्था तो करता है, पर उस घोड़े को सजाने-सँभालने में ही चौबीसों
घंटे नहीं लगा रहता। उसे उस मंजिल का भी ध्यान रखना होता है जिसके लिए यह घोड़ा खरीदा
गया है। यदि कोई व्यक्ति अपनी मंजिल की बात भूल जाए और घोड़ा किस काम के लिए खरीदा
गया है यह सोचना छोड़कर दिन-रात उस जानवर की साज-सँभाल में ही लगा रहे तो उसे उपहास
का पात्र बनना पड़ेगा, मूर्ख कहलाना पड़ेगा और घोड़ा खरीदने की उसकी भूल, योजना का
उद्देश्य ही खटाई में पड़ जाएगा। हम सब आज ऐसे ही मूर्ख घुड़सवार का अभिनय कर रहे हैं।
क्या हमारे लिए यही उचित है ?
मन की तुष्टि
-आत्मा की दुर्गति पृष्ठ-5 पं.श्रीराम शर्मा आचार्य
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