एक सज्जन, शालीन, संभ्रांत, सुसंस्कृत नागरिक का स्वरूप क्या होना चाहिए ? उसके गुण, कर्म, स्वभाव में किन शालीनताओं का समावेश होना चाहिए? इसका एक ढाँचा सर्वप्रथम अपने मस्तिष्क में खड़ा किया जाए। मानवी मर्यादा और स्थिति क्या होनी चाहिए? इसका स्वरूप निर्धारण कुछ कठिन नहीं है। दिनचर्या की दृष्टि से सुव्यवस्थित, श्रम की दृष्टि से स्फूर्तिवान, मानसिक दृष्टि से सक्षम, व्यवहार की दृष्टि से कुशल, चिंतन की दृष्टि से दूरदर्शी विवेकवान आत्मानुशासन की दृष्टि से प्रखर, व्यक्तित्व की दृष्टि से आत्मावलम्बी और आत्मसम्मानी हर श्रेष्ठ मनुष्य में यह विशेषताएँ होनी चाहिए। चरित्र की दृष्टि से उदार और स्वभाव की दृष्टि से मृदुल हँसते-हँसाते रहने वाला होना चाहिए। सादगी और सज्जनता मिले जुले तत्व हैं। आंतरिक विभूतियों और बाह्य साधन संपत्तियों का सुव्यवस्थित सदुपयोग कर सकने वालों को सुसंस्कृत कहते हैं। अपने कर्तव्यों और उत्तरदायित्वों को समझने वाले और उनके पालन को प्रतिष्ठा का प्रश्न बनाकर चलने वालों को सभ्य कहा जाता है। ये भी पढ़ें - अपने राज्य / शहर की खबर अख़बार से पहले पढ़ने के लिए क्लिक करे
ऐसी विशेषताओं से संपन्न व्यक्ति को सच्चे अर्थों में मनुष्य कहा जा सकता है । मानवता से, मानवी सद्गुणों से विभूषित व्यक्ति ही मानव समाज का सभ्य सदस्य कहला सकता है। ऐसे सद्गुण सम्पन्न मनुष्य को मापदंड मानकर उसके साथ तुलनात्मक समीक्षा करने से ही आत्म-चिंतन का उद्देश्य पूर्ण होता है। मानदण्ड न हों तो अपने दोषों और गुणों का कुछ भी पता नहीं चलेगा। दुष्टों से अपनी तुलना की जाए तो जो कुछ हम हैं, वह भी आत्मिक श्रेष्ठता की अनुभूति होगी और यदि अत्यधिक उच्च स्थिति के महामानवों से तुलना की जाए तो सामान्य स्थिति रहते हुए भी अपनी स्थिति असंतोषजनक और गई-गुजरी प्रतीत होती रहेगी। नाप-तौल के लिए बाट, गज, मीटर आदि की जरूरत पड़ती है। तुलनात्मक आधार अपनाने पर ही समीक्षा सम्भव होती है अन्यथा वस्तुस्थिति का निरुपण सम्भव ही न हो सकेगा । शरीर का तापमान कितना रहना चाहिए यह विदित रहने पर ही बुखार चढऩे का, शीत के दबाने की बात जानी जा सकती है । मध्यवर्ती रक्तचाप का ज्ञान रहने पर ही नापने वाला यह बता सकता है कि ब्लड प्रेशर घटा हुआ है या बढ़ा हुआ। इसी प्रकार एक सज्जनता एवं मानवतावादी मनुष्य का जीवन स्तर निर्धारित करने और उसके साथ अपने को तौलने में ही अपनी हेय, मध्यम एवं उत्तम स्थिति का विवेचन, विश्लेषण, निर्धारण संभव हो सकेगा ।
हम जिन दुष्प्रवृत्तियों के लिए दूसरों की निंदा करते हैं, उनमें से कोई अपने स्वभाव में सम्मिलित तो नहीं है , जिनके लिए हम दूसरों से घृणा करते हैं वैसी दुष्प्रवृत्तियाँ अपने में तो नहीं हैं ? जैसा व्यवहार हम दूसरों से अपने लिए नहीं चाहते, वैसा व्यवहार हम दूसरों के साथ तो नहीं करते ? जैसे उपदेश हम आए दिन दूसरों को दिया करते हैं, वैसे आचरण अपने है या नहीं ? जैसी हम प्रतिष्ठा एवं प्रशंसा चाहते हैं, वैसी विशेषताएँ अपने में हैं या नहीं? ऐसे प्रश्न अपने आप से पूछने और सही उत्तर पाने की चेष्टा की जाए तो अपने गुण-दोषों का वर्गीकरण ठीक तरह करना संभव हो जाएगा।
उपरोक्त प्रवचन पंडित श्रीराम शर्मा आचार्य द्वारा लिखित पुस्तक साधना से सिद्धि पृष्ठ- 35 से लिया गया है।
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