किसी भी व्यवस्था से मनुष्य की आंतरिक पवित्रता का पूर्णतया नाश नहीं होता । वह अज्ञान के अंधेरे में ढँकी सी रहती है। जैसे अग्नि को राख ढक लेती है, वैसे ही दुष्कर्मों की मलिनता में आंतरिक निर्मलता दबी रहती है। इस पवित्रता को पुन: जागृत करने के लिए प्रशंसा और प्रोत्साहन की आवश्यकता होती है। आत्मनिरीक्षण द्वारा अपनी शक्ति, श्रद्धा और विश्वास को जगायें और प्रेरणा व प्रोत्साहन देकर दूसरों की पवित्रता पुनर्जीवित करने में सहयोग दें तो इसे महान शुभकर्म मानना पड़ेगा। सामाजिक सुव्यवस्था की नीति यही है कि सब मिलजुल कर एक दूसरे को महानता की ओर अग्रसर करने में सहयोग दें । यह कार्य सद्विचारों और सत्कर्मो द्वारा सहज ही में पूरा हो जाता है । ये भी पढ़ें - अपने राज्य / शहर की खबर अख़बार से पहले पढ़ने के लिए क्लिक करे
मानव जीवन की सार्थकता के लिए विचार पवित्रता अनिवार्य है। मात्र ज्ञान, भक्ति और पूजा से मनुष्य का विकास एवं उत्थान नहीं हो सकता। पूजा, भक्ति और ज्ञान की उच्चता व श्रेष्ठता का व्यावहारिक रूप से प्रमाण देना पड़ता है। जिसके विचार गंदे होते हैं, उससे सभी घृणा करते हैं। जो वातावरण गंदा है, वहाँ जाने से सभी को झिझक होती है । शरीर गंदा रहे तो स्वस्थ रहना जिस प्रकार संभव नहीं, उसी प्रकार मानसिक पवित्रता के अभाव में सज्जनता, प्रेम और सद्व्यवहार के भाव नहीं उठ सकते। आचार-विचार की पवित्रता से ही व्यक्ति का सम्मान व प्रतिष्ठा होती है ।
सतोगुणी विचारों से प्रेरित मनुष्य का खान-पान, रहन-सहन, वेशभूषा भी पवित्र होती है। मन, वचन कर्म में सर्वत्र शुचिता के दर्शन होते हैं । ऐसा व्यक्ति सभी के हित-कल्याण की बात सोचता है । सभी की भलाई में अपनी भलाई मानता है । इससे देवी संपत्तियों का विस्तार होता है और सुख की परिस्थितियाँ बढऩे लगती है। पूर्व काल में लोग अधिक सुखी होते थे इसका कारण लोगों के आचार-विचार में पर्याप्त पवित्रता थी, अनैतिक कर्मों के बाहुल्य के कारण इस समय दु:खों का बाहुल्य हो रहा है । समय सदा एक सा रहता है, किंतु आचरण और विचारों की भिन्नता के फलस्वरूप एक समय की परिस्थितियाँ सुखद बन जाती हैं और इसके प्रतिकूल परिस्थितियाँ कष्ट व क्लेशदायक रहती हैं ।
उपरोक्त प्रवचन पंडित श्रीराम शर्मा आचार्य द्वारा लिखित पुस्तक हम बदलें तो दुनिया बदले के पृष्ठ 160 से लिया गया है।
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