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ऋषि चिंतन: देवता हमारी पूजा-पाठ के भूखे नहीं

योग-साधना का प्रथम सोपान "यम और नियम" है, जिनका तात्पर्य है— "जीवनचर्या में सद्भावनाओं और सत्प्रवृत्तियों का समुचित समावेश। भक्ति-साधना में 'नामापराध' का निर्धारण है। नाम तो जपा जाय, पर चरित्र दोषों से लिप्त रहा जाय, सो उस पर भगवान का नाम बदनाम करने का अपराध लगेगा और छद्म करने का दण्ड सहना पड़ेगा। भक्ति-भावना का सत्परिणाम मिलना तो दूर, उल्टा भगवान के क्रोध का भागी बनना पड़ेगा। साधनात्मक कर्मकाण्डों की फल श्रुतियों को सुनाते-समझते समय इस तथ्य के प्रतिपादनकर्त्ताओं को इतना तो ध्यान रखना ही होगा कि उसे इस प्रयास में दृष्टिकोण में "उत्कृष्टता" और व्यवहार में "आदर्शवादिता" का उच्चस्तरीय समावेश करना है। इसकी उपेक्षा करने पर तो शेख चिल्ली की तरह उपहासास्पद बनना पड़ेगा। वह बेचारा यह तो भूल करता रहा कि आदि और अन्त की बात सोची, मध्यवर्ती क्रिया-प्रक्रिया की उपेक्षा करके रंगीन सपने देखने लगा। यह भूल वे लोग करते हैं जो मन्त्र-जप मात्र से संपदाओं विभूतियों से घर भर लेने के दिवास्वप्न देखते रहते हैं। सिर और पैर ही सब कुछ नहीं है। मध्यवर्ती धड़ की भी उपयोगिता और महत्ता है। इस तथ्य से हर किसी को अवगत होना चाहिए। साधना और सिद्धि के मध्य में "चिन्तन" और "चरित्र" की उत्कृष्टता, संयम और सेवा की जीवन-साधना अनिवार्य रूप से आवश्यक है। भूल यह होती रही है कि विकृत भ्रम ग्रस्तता द्वारा यह समझा या समझाया गया कि देवी-देवता पूजा-पाठ के भूखे बैठे रहते हैं और उतना-सा लालच दिखाकर उन्हें कुछ भी कराने के लिए वशवर्ती किया जा सकता है। उपासना को जादूगर-बाजीगरी के समतुल्य ठहराया गया और सोचा गया कि उससे कौतुक - कौतूहल देखने- दिखाने वाले दृश्य सामने दौड़ने लगते हैं। मनोकामना सिद्धि के लिए यह सस्ते नुस्खे बाल-बुद्धि को बहुत सुहाये। बिना पात्रता और परिश्रम के ऐसे ही हाथों की हेरा-फेरी, जीभ में कुछ कहते रहने भर से ऋद्धि-सिद्धियाँ छप्पर फाड़कर घर में कूदेंगी। ऐसे ही कुछ अनगढ़ सपने तथाकथित साधकों के सिर पर छाये रहते हैं। साधना से सिद्धि के आधारभूत सिद्धांत पृष्ठ-14 पं. श्रीराम शर्मा आचार्य

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Web Title-Rishi Chintan: Gods are not hungry for our worship
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