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ऋषि चिंतन: दैविक दु:ख व उनके कारण

दैविक दु:ख वे कहे जाते हैं, जो मन को होते हैं, जैसे चिंता, आशंका, क्रोध, अपमान, शत्रुता, बिछोह, भय, शोक आदि। इन्हें मानसिक कष्ट भी कहते हैं । ये वे पाप हैं, जो स्वेच्छा पूर्वक तीव्र भावनाओं से प्रेरित होकर किए जाते हैं, जैसे ईष्र्या, कृतघ्नता, छल, दंभ, घमंड, क्रूरता, स्वार्थपरता आदि। इन कुविचारों के कारण जो वातावरण मस्तिष्क में घुटता रहता है उससे अंत:चेतना पर उसी प्रकार प्रभाव पड़ता है जिस प्रकार धुएँ के कारण दीवार काली पड़ जाती है या तेल से भीगने पर कपड़ा गंदा हो जाता है ।

आत्मा स्वभावत: पवित्र है, वह अपने ऊपर इन पाप-मूलक कुविचारों, प्रभावों को जमा हुआ नहीं रहने देना चाहती, वह इस फिक्र में रहती है कि किस प्रकार इस गंदगी को साफ करूँ ? पेट में हानिकारक वस्तुएंँ जमा हो जाने पर पेट उसे उल्टी या दस्त में निकाल बाहर करता है। उसी प्रकार तीव्र इच्छा से जानबूझकर किए गए पापों को निकाल बाहर करने के लिए आत्मा आतुर हो उठती है । हम उसे जरा सा भी जान नहीं पाते, किंतु आत्मा भीतर ही भीतर उसके भार को हटाने के लिए अत्यंत व्याकुल हो जाती है । बाहरी मन, स्थूल बुद्धि को उस अदृश्य प्रक्रिया का कुछ भी पता नहीं लगता, पर अंतर्मन चुपके ही चुपके ऐसे अवसर एकत्रित करने में लगा रहता है, जिससे वह भार हट जाए। अपमान, असफलता, बिछोह, शोक, दु:ख आदि यदि प्राप्त होते हों तो ऐसे अवसरों को मनुष्य कहीं से एक न एक दिन किसी प्रकार खींच ही लाता है, ताकि उन दुर्भावनाओं का, पाप संस्कारों का इन अप्रिय परिस्थितियों में समाधान हो जाए।

शरीर द्वारा किए हुए चोरी, डकैती, व्यभिचार, अपहरण, हिंसा आदि में मन ही प्रमुख है। हत्या करने में हाथ का कोई स्वार्थ नहीं है वरन् मन के आवेश की पूर्ति है, इसलिए इस प्रकार के कार्य जिनके करते समय इंद्रियों को सुख न पहुंँचता हो, मानसिक पाप कहलाते हैं । ऐसे पापों का फल मानसिक दु:ख होता है । स्त्री पुत्र आदि प्रिय जनों की मृत्यु, धन-नाश, लोक निंदा, अपमान, पराजय, असफलता, दरिद्रता आदि मानसिक दु:ख हैं, उनसे मनुष्य की मानसिक वेदना उमड़ पड़ती है, शोक संताप उत्पन्न होता है, दु:खी होकर रोता-चिल्लाता है,आँसू बहाता है, सिर धुनता है । इससे वैराग्य के भाव उत्पन्न होते हैं और भविष्य में अधर्म न करने एवं धर्म में प्रवृत्त रहने की प्रवृत्ति बढ़ती है।

देखा गया है कि मरघट में स्वजनों की चिता रचते हुए ऐसे भाव उत्पन्न होते हैं कि जीवन का सदुपयोग करना चाहिए। धन नाश होने पर मनुष्य भगवान को पुकारता है। पराजित और असफल व्यक्ति का घमंड चूर हो जाता है। नशा उतर जाने पर वह उसकी बात करता है। मानसिक दु:खों का एकमात्र उद्देश्य मन में जमे हुए ईष्र्या, कृतघ्नता, स्वार्थपरता, क्रूरता, निर्दयता, छल, दंभ, घमंड की सफाई करना होता है । दु:ख इसलिए आते हैं कि आत्मा के ऊपर जमा हुआ प्रारब्ध कर्मों का पाप संस्कार निकल जाए । पीड़ा और वेदना की धारा उन पूर्व कृत्य, प्रारब्ध कर्मों के निकृष्ट संस्कारों को धोने के लिए प्रकट होती है ।

उपरोक्त प्रवचन पंडित श्रीराम शर्मा आचार्य द्वारा लिखित पुस्तक गहना कर्मणोगति: पृष्ठ- 9 से लिया गया है।

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Web Title-Rishi Chintan: Divine Sorrows and Their Causes
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