आज मनुष्यों ने अपनी नैतिक मर्यादायें छोड़ दी है, परमार्थ का उदार मानवीय दृष्टिकोण भुला दिया गया और हर कोई अपने व्यक्तिगत संकीर्ण स्वार्थों की पूर्ति में बेतरह व्यस्त हो गया । इसके फलस्वरूप वैयक्तिक और सामाजिक जीवन में असंख्य विकृतियाँ, उलझनें और समस्यायें उत्पन्न होनी ही थी और उनकी प्रतिक्रिया अगणित शोक-संतापों के रूप में ही उपस्थित हो सकती थी। आज साधनों का दुर्भिक्ष भले ही न हो पर भावनात्मक दुर्भिक्ष इतना विषम है कि नारकीय दावानल में जलते हुए प्राणी हर दिशा में हा-हाकार कर रहे हैं। महाकाल कुपित होकर कठोर प्रताडऩा का अंजाम जुटाने में व्यस्त हैं । ये भी पढ़ें - अपने राज्य / शहर की खबर अख़बार से पहले पढ़ने के लिए क्लिक करे
स्थिति को बदला कैसे जाय ? इसका एक ही उपाय है -लोग अपनी रीति-नीति बदलें, भावनात्मक परिवर्तन करें और तौर-तरीके उलटें, स्वार्थ निमग्नता को परमार्थ प्रयोजनों की अभिरुचि में परिवर्तित करें। देवता ऐसी ही मनोभूमि के लोगों को प्यार प्रदान करते हैं, उन्हीं पर उनका अनुग्रह बरसता है। इस उदात्त दृष्टि एवं जीवन पद्धति का नाम ही यज्ञ है। यज्ञ का मेरुदंड है बलिदान। निरीह पशुओं का खून बहा डालना तो एक पैशाचिक कृत्य हैं। बलिदान का मर्म है परमार्थ के लिए अधिकाधिक आत्म संयम और तप-त्याग का उदार परिचय, अपने लिए कम से कम रखकर अपनी क्षमता योग्यता और समृद्धि का परमार्थ के लिए उत्सर्ग। यही मानवोचित पुण्य परंपरा है।
जब तक ऐसे यज्ञानुष्ठान घर-घर में होते रहते हैं, देवता प्रसन्न होकर विपुल सुख शांति की वर्षा करते रहते हैं, पर जैसे ही लोगों ने यज्ञ से मुँह मोड़ा कि दैवी अनुग्रह की वर्षा बंद हो जाती है। यज्ञ अग्निहोत्र को भी कहते हैं। अग्निहोत्र यज्ञीय परंपरा का एक प्रतीकात्मक पुण्य प्रदर्शन है । वास्तविक यज्ञ है-परमार्थ परायण जीवन जीने का निश्चय। देवता यही चाहते हैं और यही करने वालों को विभूतियाँ प्रदान करते हैं । स्वार्थरत यज्ञ विरोधी लोग दैवी कोप के भाजन बनते हैं और उन्हें वस्तुओं का सही सुख-शांति भरी परिस्थितियों का असह्य दुर्भिक्ष अवश्य त्रास देता है । अस्तु परिस्थिति बदलने की योजना बनाने वालों को बलिदानों की व्यवस्था करनी होती है -नरमेध रचाने होते हैं । ऐसे आयोजन खड़े करने होते हैं जिनसे अधिकाधिक तप-त्याग करने की परंपरा प्रचलित हो सके।
इन पुण्य प्रयोजनों के लिए बातूनी और ढोंगियों की नहीं, बलिदानियों की आवश्यकता अनुभव की जा रही है। अभियान तैयार है पर बलिदान का अवसर आते ही चतुर लोग बगले झाँकते और बहाने बनाते दीख पड़ते हैं। हम इस अभाव की पूर्ति कर सकें तो युग की एक महत्ती आवश्यकता पूरी हो जाए। इतिहास को अपनी पुनरावृत्ति का अवसर मिल जाए।
उपरोक्त प्रवचन पंडित श्रीराम शर्मा आचार्य द्वारा लिखित पुस्तक महाकाल और युग प्रत्यावर्तन प्रक्रिया, पृष्ठ-67 से लिया गया है।
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