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भारत: स्थानीय क़दमों से वैश्विक प्रभाव: परिवर्तनकारी युवाओं की कहानियाँ

 - World News in Hindi

संयुक्त राष्ट्र के युवा मामलों के सहायक महासचिव डॉक्टर फ़ेलिपे पाउलियर ने अपनी भारत यात्रा के दौरान, देशभर के युवा परिवर्तनकारियों से मुलाक़ात की. उन्होंने समावेशी शिक्षा, जलवायु, शरणार्थी नेतृत्व, विकलांग अधिकार, LGBTQI+ गरिमा और मानसिक स्वास्थ्य पर उनकी बातें सुनीं. सन्देश स्पष्ट था - संस्थाएँ युवाओं पर भरोसा करें, उन्हें निर्णय-प्रक्रिया और नेतृत्व में वास्तविक जगह दें. चर्चा एक सरल विचार के साथ शुरू हुई - युवजन सिर्फ़ लाभार्थी नहीं, वे साझीदार और सह-निर्माता हैं. मेज़ के चारों ओर वो छात्र, सामाजिक उद्यमी, शिक्षक, कार्यकर्ता और शरणार्थी बैठे थे, जिन्होंने अपने निजी अनुभवों को सामाजिक परिवर्तन में तब्दील किया है.मुकुल शर्मा ने बताया कि उनकी ज़िन्दगी बचपन से ही संघर्ष की कहानी रही. उन्हें हमेशा लगता था कि वे उस शरीर में जन्मे हैं जो उनका अपना नहीं था. स्कूल में वे लड़कियों की यूनीफ़ॉर्म पहनते थे, हर दिन चुपचाप, अपने भीतर एक असहज युद्ध लड़ते हुए. वे कहते हैं, “मैं ख़ुद को पहचानने की कोशिश कर रहा था, लेकिन समाज ने पहले ही तय कर रखा था कि मुझे कैसा होना चाहिए.” किशोरावस्था में उनके शरीर में बदलाव आने लगे - पर ये बदलाव उनकी पहचान से मेल नहीं खाते थे. परिवार से बात करना मुश्किल था, और जब उन्होंने हिम्मत दिखाई, तो उन्हें डेढ़ साल घर में बन्द रहना पड़ा, कई बार हिंसा का सामना भी किया. मोहन याद करते हैं, “फिर भी मैंने हार नहीं मानी.” 2017 में उन्होंने रूपान्तर शुरू किया – लेकिन उसी साल उनके पिता का निधन हो गया. “वो साल मेरी ज़िन्दगी का सबसे कठिन मोड़ था.”बहुत सी अस्वीकृतियों और असमानताओं के बीच आखिरकार उन्हें पहला रोज़गार मिला. आज वे राष्ट्रीय ट्रांसजैंडर नैटवर्क का प्रतिनिधित्व करते हैं और ट्रांस युवाओं के लिए शिक्षा व सम्मानजनक कामकाज के अवसरों पर काम कर रहे हैं. मुकुल कहते हैं, “भारत बदलेगा तो युवाओं की बहादुरी और नवोन्मेष से. हमें बस बराबरी का एक अवसर चाहिए.” © UN India/Shachi Chaturvedi जहाँ ज़रूरत सबसे ज़्यादा है सूरज बंसर, दिल्ली की अनौपचारिक बस्तियों में मानसिक स्वास्थ्य को घर-घर तक पहुँचा रहे हैं. उनके सामुदायिक केन्द्र ने 300 से अधिक लोगों तक सहायता पहुँचाई है और अब यह स्कूलों तक फैल रहा है. उनका दृष्टिकोण सीधा है – मानसिक स्वास्थ्य से जुड़े कलंक को घटाना, मदद को दिखाई देने लायक बनाना, और स्थानीय युवाओं को प्रशिक्षित करना, ताकि देखभाल स्थाई बने.समावेशन की ज़रूरतआरुषि, UNODC समर्थित एक युवा-नेतृत्व परियोजना की संस्थापक हैं. वह कहती हैं, “सिर्फ़ ढाँचा समावेशन नहीं लाता. शिक्षकों और छात्रों को संवाद के साधन चाहिए ताकि वे अलग पहचान सकें और सम्बन्ध बना सकें.” उनकी टीम कॉमिक्स और सरल कहानियों के ज़रिए दैनिक जीवन में समावेशन का अभ्यास सिखाती है.कभी स्कूलों से अस्वीकार की गईं काव्या माखीजा, आज Disability, Design & Innovation में शेवनिंग स्कॉलर हैं. उनकी रिपोर्ट के आधार पर सुप्रीम कोर्ट ने पहुँच (accessibility) को मौलिक अधिकार माना. वे कहती हैं, “हमारे पास विचार हैं, योजनाएँ हैं – ज़रूरत है तो केवल भरोसे, पूँजी और पैमाने की.” © UN India/Shachi Chaturvedi बच्चों की नज़र से जलवायुकार्तिक वर्मा ने भदोही के सरकारी स्कूलों में बच्चों से पूछा - “तुम्हारे लिए जलवायु परिवर्तन का क्या मतलब है?” उनके जवाबों ने एक आंदोलन का रूप लिया. अब उनकी टीम design thinking कार्यशालाएँ चलाती है जो गर्मी, पानी, कचरे जैसी स्थानीय समस्याओं — को वैश्विक मुद्दों से जोड़ती हैं. यही अनुभव बाद में यूएन साझेदारों के साथ नीति-सिफ़ारिशों में शामिल होते हैं.“हमें अवसर चाहिए, दान नहीं”अफ़ग़ान शरणार्थी छात्रा अनसा जान फ़ज़ली ने शिक्षा के लिए ऊँची लागत और सीमित अवसरों की चुनौतियाँ का ज़िक्र किया. छात्रवृत्तियों से राहत मिली, लेकिन वे कहती हैं, “हमें रोज़गार के अवसर चाहिए, क्योंकि हम सक्षम हैं, बस मौक़ा नहीं मिलता.”दिल्ली की सोमाली शरणार्थी, कम होती धन सहायता और दूरस्थ सामुदायिक केन्द्रों की मुश्किलें साझा करती हैं. वह और उनके साथी अंग्रेज़ी और कौशल सिखाने की कक्षाएँ चलाते हैं, ताकि नए शरणार्थी, कामकाज व शिक्षा पा सकें. उनकी अपील सरल है -“सामुदायिक हब खुलें और संसाधनयुक्त रहें.” खेत से मूल्य श्रृँखलाओं तकअमन कुमार, गंगा क्षेत्र में किसानों के साथ मिलकर मूंगफली की फ़सल को अधिक मूल्य वाले उत्पादों में बदलते हैं. वे स्व-सहायता समूहों को प्रशिक्षित करके, खाद्य प्रसंस्करण को जलवायु सहनसक्षमता एवं नीति-निर्माण से जोड़ते हैं. उनका कहना था, “गाँवों को जोखिम से बचाने और मूल्य को समुदाय के भीतर बनाए रखने के लिए ज़मीनी उद्यमों को समर्थन दीजिए.”असम के सुवालकुची की 19 वर्षीय धनजीता दास बताती हैं, “हमारे गाँव में पीने का साफ़ पानी नहीं था. UNOPS के साथ जुड़ने के बाद हमें सुरक्षित पेयजल मिला, और जल-जनित बीमारियाँ घट गईं. मैं भी इस यात्रा का हिस्सा हूँ और आगे भी इसे जारी रखना चाहती हूँ.” © UN India/Shachi Chaturvedi कश्मीर से नारीवादी नेतृत्ववास्तुकार और युवा नेतृ मुन्नज़्ज़ा बताती हैं कि एक नारीवादी नेतृत्व कार्यक्रम ने उन्हें कश्मीर-केन्द्रित विचारों को राष्ट्रीय विमर्श का हिस्सा बनाने का आत्मविश्वास दिया. मुनज़्ज़ा कहती हैं, “हमारे पास प्रतिभा है, विचार हैं, बस मंच और संसाधन नहीं.” उनका समाधान है - “सीखने के दो-तरफ़ा उपाय जो विचारों को कश्मीर से दुनिया तक और दुनिया से कश्मीर तक ले जाएँ.”भरोसे से शुरू होता है परिवर्तनडॉक्टर फ़ेलिपे पाउलियर का निष्कर्ष स्पष्ट था. “युवा पहले से ही बदलाव के एजेंट हैं. संयुक्त राष्ट्र की भूमिका है बाधाएँ कम करना, साझेदारियाँ बुनना, और यह सुनिश्चित करना कि युवाओं की आवाज़ स्थानीय से वैश्विक निर्णयों तक पहुँचे.”उन्होंने कहा, “भारत का पैमाना और विविधता दुनिया के लिए सीखने का एक मैदान है. युवाओं की सार्थक भागेदारी कोई नारा नहीं - यह काम करने का तरीक़ा है, डिज़ाइन से लेकर क्रियान्वयन और मूल्यांकन तक.”उन्होंने कहा कि हर स्थानीय क़दम मायने रखता है. जब संस्थाएँ युवाओं पर भरोसा करती हैं और उन्हें नेतृत्व का अवसर देती हैं, तो परिवर्तन सिर्फ़ सम्भव नहीं होता - अनिवार्य बन जाता है. © UN India/Shachi Chaturvedi

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