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जलवायु परिवर्तन का मुक़ाबला करने में मानवाधिकारों की अहम भूमिका

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संयुक्त राष्ट्र के मानवाधिकार उच्चायुक्त वोल्कर टर्क ने, अन्तरराष्ट्रीय समुदाय से मानवाधिकारों पर, जलवायु परिवर्तन के बढ़ते का सामना करने के लिए ठोस क़दम उठाने का आग्रह किया है. वोल्कर टर्क ने, जिनीवा में मानवाधिकार परिषद की बैठक को सम्बोधित करते हुए, सदस्य देशों से सवाल किया कि "क्या हम वाक़ई ऐसे क़दम उठा रहे हैं जो लोगों को जलवायु संकट से बचा सकें, उनके भविष्य की रक्षा कर सकें, और प्राकृतिक संसाधनों का ऐसा प्रबन्धन कर सकें, जो मानवाधिकारों और पर्यावरण, दोनों का सम्मान करता हो?"उनका जवाब साफ़ था, “हमे जितने प्रयास करने चाहिए, हम उनके कहीं आसपास भी प्रयास नहीं कर रहे हैं.”मानवाधिकार उच्चायुक्त ने ज़ोर देकर कहा कि जलवायु परिवर्तन जहाँ एक ओर मानवाधिकारों, ख़ासतौर से सबसे कमज़ोर वर्गों के लिए गम्भीर ख़तरा है, वहीं यह, प्रगति को आगे बढ़ाने का एक मज़बूत अवसर भी बन सकता है. Tweet URL

इसका मूल आधार है, “न्यायसंगत परिवर्तन” यानि पर्यावरण को नुक़सान पहुँचाने वाली गतिविधियों से दूर हटना.उन्होंने कहा, “अब हमें एक ऐसा रोडमैप चाहिए जो हमें दिखाए कि हम अपने समाजों, अर्थव्यवस्थाओं और राजनीति को किस तरह न्यायसंगत व टिकाऊ तरीक़े से नए सिले से सोच सकते हैं.”सम्मानजनक काम का अधिकारपरिषद ने, मानवाधिकार और जलवायु परिवर्तन के बीच सम्बन्ध की जाँच करने के लिए जो प्रमुख आधार अपनाएँ, उनमें से एक था - सम्मानजनक काम का अधिकार.अन्तरराष्ट्रीय श्रम संगठन (ILO) के एक वरिष्ठ अधिकारी मुस्तफ़ा कमाल गुएये का कहना है, “जलवायु परिवर्तन के कारण, आज सम्मानजनक काम का मानव अधिकार, मूल रूप से चुनौतीपूर्ण हो गया है.” उन्होंने आगाह किया कि अगर दुनिया ने अपनी वर्तमान जलवायु स्थिति को नहीं बदला, तो वर्ष 2030 तक 8 करोड़ से अधिक स्थाई रोज़गार ख़त्म हो जाएंगे.इसके अलावा, विश्व के लगभग 70 प्रतिशत कामकाजी लोग यानि क़रीब 2 अरब 40 करोड़ श्रमिक, अपने कामकाज के दौरान किसी न किसी समय अत्यधिक गर्मी के प्रभाव में आएँगे.मुस्तफ़ा कमाल गुएये ने कहा, ये चिन्ताजनक आँकड़े दिखाते हैं कि गहराते जलवायु संकट के बीच, कर्मचारियों के लिए मज़बूत सामाजिक सुरक्षा व्यवस्था बेहद ज़रूरी है. उन्होंने कहा कि अनेक देश अभी सामाजिक सुरक्षा के अधिकार को पूरा करने से बहुत दूर हैं, ख़ासकर जब बात जलवायु बदलाव का मुक़ाबला करने की आती है. इसलिए, सामाजिक सुरक्षा पर अधिक ध्यान और निवेश किए जाने की ज़रूरत है. इसे केवल अस्थाई मदद तक सीमित नहीं रखना चाहिए, बल्कि इसे एक मज़बूत और अधिकारों पर आधारित व्यवस्था बनाना होगा.साथ ही, उन्होंने एक सकारात्मक पहलु को उजागर करते हुए कहा, कम कार्बन उत्सर्जन वाली अर्थव्यवस्थाओं की ओर बदलाव से, 2030 तक 10 करोड़ से अधिक नए रोज़गार उत्पन्न हो सकते हैं. लेकिन, ये नए रोज़गार हमेशा उन जगहों पर नहीं बनेंगे, जहाँ पुराने रोज़गार ख़त्म हो रहै हैं, इसलिए कामगारों के लिए मज़बूत सुरक्षा और सही योजना बनाना बहुत ज़रूरी है.जीवाश्म ईंधनों से छुटकारा ज़रूरी संयुक्त राष्ट्र की मानवाधिकार और जलवायु परिवर्तन पर विशेषज्ञ एलिसा मोरगेरा ने अपनी नवीनतम रिपोर्ट पेश की है जिसमें कहा गया है कि अर्थव्यवस्थाओं से जीवाश्म ईंधनों के प्रयोग को धीरे-धीरे ख़त्म करना सबसे प्रभावी तरीक़ा है. इससे जलवायु परिवर्तन के प्रभाव कम किए जा सकते हैं और साथ ही मानवाधिकारों की रक्षा भी हो सकती है.मोरगेरा ने बताया कि यह आसान काम नहीं है क्योंकि जीवाश्म ईंधन हमारे जीवन और अर्थव्यवस्था के हर हिस्से में अपनी पहुँच बना चुका है.उन्होंने कहा, “जीवाश्म ईंधन हर जगह हैं: हमारी खाद्य प्रणाली में, हमारे समुद्रों में, हमारे शरीर में, यहाँ तक कि हमारे दिमाग़ में भी और बहुत से मामलों में हमें इसकी जानकारी भी नहीं होती है या हमने अपनी ज़िन्दगी में जानबूझकर इन्हें शामिल नहीं किया होता है फिर भी.” विशेषज्ञ मोरगेरा ने कहा कि हमें “ज्ञान को भी जीवाश्म ईंधन के प्रयोग की जकड़ से बाहर निकालना” होगा. इस सम्बन्ध में उन्होंने बताया कि किस तरह जीवाश्म ईंधन से जुड़े हितों ने, जनता की समझ को गड़बड़ा दिया है और जलवायु रक्षकों पर हमले भी किए हैं.उन्होंने कहा कि हालाँकि राजनैतिक मतभेद प्रगति को धीमा कर सकते हैं, मगर हर स्तर पर अभी से कार्रवाई शुरू की जा सकती है.जन-केन्द्रित दृष्टिकोणमानवाधिकार उच्चायुक्त वोल्कर टर्क ने ज़ोर देकर कहा कि एक न्यायसंगत परिवर्तन में यह सुनिश्चित किया जाना चाहिए कि कोई भी पीछे नहीं छूटे.उन्होंने कहा, “अगर हम लोगों की ज़िन्दगियों, उनके स्वास्थ्य, उनके रोज़गार और भविष्य की सम्भावनाओं की रक्षा नहीं करते, तो यह परिवर्तन हमारे समाज में पहले से मौजूद अन्याय और असमानताओं को केवल दोहराएगा ही नहीं, बल्कि और भी बढ़ा देगा.”ILO के मुस्तफ़ा कमाल गुएये ने भी इसी भावना को दोहराया: “वैश्विक जलवायु एजेंडा एक मानवीय आपबीती है और यह मानवाधिकारों से जुड़ी बात है.""देश और अन्तरराष्ट्रीय समुदाय जो लक्ष्य तय कर रहे हैं, वे सिर्फ़ आँकड़ों और संकेतकों तक सीमित नहीं होने चाहिए, इस पूरी प्रक्रिया का केन्द्र बिंदु लोगों को ही बनाना होगा.”

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