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भारत: मयनागुड़ी - जहाँ प्लास्टिक कचरे से निकली प्रगति की राह

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भारत के पश्चिम बंगाल राज्य के मयनागुड़ी में प्लास्टिक कचरे को सड़कों में बदलने की एक अनोखी पहल, न केवल पर्यावरणीय समाधान के रूप में उभरकर सामने आई है, बल्कि ग्रामीण आजीविका और स्वच्छता का भी प्रतीक बन गई है. इस परिवर्तन में यूनीसेफ़, राज्य सरकार के साथ मिलकर कचरा प्रबंधन, प्रशिक्षण और निगरानी के ज़रिए इस मॉडल को स्थाई और विस्तार योग्य बनाने में मदद कर रहा है. पश्चिम बंगाल के मयनागुड़ी की गलियों में एक नई शुरुआत हुई है. यहाँ सड़कें अब केवल लोगों को मंज़िलों तक नहीं पहुँचातीं, बल्कि उम्मीद और नवाचार का रास्ता बन गई हैं.इन सड़कों की नींव में वो प्लास्टिक है, जो कभी नदियों में बहता था, गलियों में उड़ता था, और पर्यावरण के लिए ख़तरा माना जाता था.इस परिवर्तन की शुरुआत हुई है, एक छोटे से गाँव से, जहाँ कूड़ा अब बेकार नहीं, बल्कि बहुमूल्य संसाधन बन गया है.यहाँ प्लास्टिक कचरे को सड़कों में बदल दिया गया है, जिससे न केवल साफ़-सफाई बढ़ी है बल्कि रोज़गार और सम्मान की राह भी खुली है.13 साल का राहुल, जो पहले स्केटिंग करने के लिए एक समतल ज़मीन के लिए तरसता था, अब दिन में दो बार उसी प्लास्टिक-बिटुमेनस सड़क पर लहराता हुआ झूमता है.वह मुस्कुराते हुए कहता है, “पहले मेरे गाँव की सड़कें इतनी ख़राब थीं कि स्केटिंग कर पाना मुमकिन ही नहीं था. अब यह सड़क मेरे खेल का मैदान बन गई है.” © UNICEF/Subrata Biswas सोच बदलने की शुरुआतयह पहल 2024 के अक्टूबर महीने में जलपाईगुड़ी ज़िले के खगराबाड़ी-द्वितीय पंचायत में शुरू हुई थी.ब्लॉक स्तर पर स्थापित प्लास्टिक कचरा प्रबंधन (PWM) इकाई अब हर दिन लगभग 600 किलोग्राम प्लास्टिक एकत्र कर रही है – वो भी 15 ग्राम पंचायतों और एक नगरपालिका से.इनमें ज़्यादातर प्लास्टिक LDPE (लो डेंसिटी पॉलीइथिलीन) है – जो पॉलीथीन की थैलियों, चिप्स के पैकेट और फूड रैपर्स में इस्तेमाल होता है. यही प्लास्टिक जो पहले वातावरण को गन्दा करता था, अब सड़कों को मज़बूत कर रहा है. © UNICEF/Subrata Biswas इस इकाई में पाँच पुरुष और दो महिलाएं काम करती हैं – जिन्हें हर दिन ₹202 की मज़दूरी मिलती है.कभी जो काम “गन्दगी” से जुड़ा मानकर लोग दूर भागते थे, अब वही काम लोगों के लिए सम्मान और स्थिर आय का स्रोत बन गया है.दो बच्चों की माँ, 35 वर्षीय चैताली मोडक जब इस काम से जुड़ीं, तो उनके रिश्तेदारों और पड़ोसियों ने उन्हें ताने मारे. लेकिन उन्होंने कहा, “अगर इस ‘गन्दगी वाले काम’ से समाज में सुधार होता है और मेरे बच्चों का भविष्य बेहतर होता है, तो यह शर्म नहीं बल्कि गर्व की बात होगी.”धीरे-धीरे, चैताली और उनके साथियों की सोच ने पूरे गाँव को बदला. अब वहाँ कचरा फेंका नहीं जाता, बल्कि उसे अलग किया जाता है. सफ़ाई अब सिर्फ़ सरकारी योजना नहीं, बल्कि सामुदायिक ज़िम्मेदारी बन गई है. © UNICEF/Subrata Biswas अवसर की मिसालजलपाईगुड़ी ज़िला परिषद के ADM, रौनक अग्रवाल बताते हैं कि यह परियोजना सिर्फ प्लास्टिक निपटान ही नहीं, बल्कि पर्यावरणीय चुनौती को अवसर में बदलने की मिसाल है. यह सड़कों को टिकाऊ, ग्रामीण आवाजाही को बेहतर करने और नदी-झीलों को प्रदूषण मुक्त बनाने का तरीक़ा बन गई है.UNICEF, इस बदलाव में प्ररदेश सरकार के साथ कन्धे से कन्धा मिलाकर काम कर रहा है. अब तक, इस पायलट योजना के तहत, प्लास्टिक के पुनः उपयोग से 244 किलोमीटर सड़कों का निर्माण किया जा चुका है. प्लास्टिक कचरा प्रबंधन (PWM) इकाइयों के संचालन हेतु 221 लोगों को प्रशिक्षण दिया गया है, और 1331 सफ़ाईकर्मियों को भी विशेष प्रशिक्षण देकर उनकी भूमिका को मज़बूत किया गया है.आज मयनागुड़ी की गलियों में केवल साफ़-सफ़ाई नहीं दिखती, वहाँ एक ख़ामोश क्रान्ति की आहट भी महसूस होती है. यह क्रान्ति है सोच की, रोज़गार की, और उम्मीद की. © UNICEF/Jalpaiguri Zila Parishad Office विस्तार की योजनायह कहानी सिर्फ़ एक गाँव की नहीं है. यह मॉडल पूरे देश में दोहराया जा सकता है – जहाँ कचरा अब बोझ नहीं बल्कि संसाधन है, और जहाँ बदलाव, ज़मीन से शुरू होता है.पश्चिम बंगाल का यह प्रयोग दिखाता है कि सतत विकास केवल सरकारों के भरोसे नहीं होता – वह समुदायों, बच्चों, और चैताली जैसी महिलाओं की मेहनत से साकार होता है.कभी जो प्लास्टिक कचरा था, आज वही सड़क बन गया है. जो काम गन्दा कहा जाता था, आज वही सम्मान का ज़रिया है, और जो गाँव कभी पीछे छूट गया था, अब वही प्रगति का रास्ता दिखा रहा है.इस लेख का विस्तृत संस्करण पहले यहाँ प्रकाशित हुआ.

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