धर्मशाला। पड़ोसी राज्यों पंजाब व उत्तराखंड
सहित देश के पांच राज्यों में हुए विधानसभा चुनावों के नतीजे हिमाचल प्रदेश की
कांग्रेस सरकार के लिए खतरे की घंटी के समान बताए जा रहे हैं। हालांकि पंजाब में
कांग्रेस ने दस साल के बाद भारी बहुमत के साथ वापसी की है, मगर यहां गौर करने वाली
बात यह रही कि यहां की जनता ने अकाली-भाजपा सरकार से तंग आकर कांग्रेस को चुना है।
यानि कि मौजूदा सरकार को बदला है। ऐसा ही कुछ उत्तराखंड, उत्तर प्रदेश में भी हुआ
है। वहीं गोवा व मणिपुर में भी मतदाताओं ने मौजूदा सरकारों के खिलाफ जनादेश दिया
है। हालांकि इन दोनों ही जगहों पर पूर्ण बहुमत किसी को नहीं मिला है। कुल मिलाकर
यही कहा जा सकता है कि हिमाचल प्रदेश में इसी साल होने वाले विस चुनावों में
वीरभद्र सरकार का मिशन रिपीट कोई आसान काम नहीं है। वैसे भी प्रदेश की जनता हमेशा
ही सरकारों को पलटती आई है। चाहें भाजपा हो या फिर कांग्रेस का पर्याय बन चुके
वीरभद्र सिंह किसी का मिशन रिपीट आज तक सफल नहीं हो पाया है।
ऐसे में जब पूरे देश में मोदी लहर बरकरार रहने की बात कही जा रही हो, तब गुजरात का
सीएम बनने से पूर्व मोदी की कर्मभूमि रहे हिमाचल प्रदेश में उनकी लहर से बच पाना
आसान नहीं होगा। मोदी लहर का असर प्रदेश की राजनीति पर वर्ष 2014 के आम चुनावों
में देख ही चुकी है, जब चारों लोस सीटों पर भाजपा ने विजय पताका फहराई थी और सबसे
कमजोर कहे जाने वाले प्रत्याशी भी जीत गए थे। ऐसे में मिशन रिपीट के जरिये
सत्ता का सता लगाने का दावा कर रहे वीरभद्र सिंह की राह में विपक्षी दल भाजपा ही
नहीं अपनी ही पार्टी के विरोधियों ने भी कुछ कम कांटे नहीं बिछा रखे हैं। प्रदेश
के कांग्रेस संगठन पर जहां उनके विरोधियों का कब्जा है, तो उनके मंत्रिमंडल में
शामिल कुछ मंत्री भी गाहे-बगाहे उनकी मुसीबत बढ़ाते रहे हैं। वहीं प्रदेश में
दमदार नेतृत्व की कमी और देश में बूरी तरह से पिटती जा रही कांग्रेस पार्टी के लिए
आगामी विस चुनावों में वीरभद्र सिंह पर भरोसा जताने के अलावा कोई दूसरा चारा नहीं
बचा है।
हालांकि उत्तराखंड में हरिश रावत की तरह ही वीरभद्र सिंह भी आलाकमान को आंख दिखाकर
प्रदेश की सत्ता में दबदबा बनाए हुए हैं, मगर छह बार सीएम रहे वीरभद्र सिंह की
प्रदेश की राजनीति पर अच्छी खासी पकड़ है और हर क्षेत्र की जनता में स्वीकार्यता
भी रही है।
हालांकि राजनीतिक पंडित यह भी मानने लगे हैं कि इस बार के कार्यकाल में
उनके काम पर उनकी उम्र का असर साफ दिखा है। इसके चलते प्रदेश की जनता में उनकी
स्वीकार्यता का ग्राफ पहले जैसा शायद ही न रहे। ऐसे में कुछ अन्य पहलु भी हैं, जिन
पर नजर दौड़ाना जरूरी है।
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