लखनऊ। राममंदिर पर सर्वोच्च
न्यायालय का अच्छा सुझाव आया है। अदालत ने राममंदिर और बाबरी मस्जिद के पक्षकारों
को अपनी भाषा में साफ संदेश दिया है। अगर इस बात को कोई नहीं समझता है तो यह उसकी
खुद की भूल समझी जाएगी।
अदालत ने कहा है कि अगर न्याय क्षेत्र से बाहर इस विवाद हल निकाला
जाता है तो सुप्रीमकोर्ट के न्यायाधीश भी पहल करेंगे। यह अनुकूल वक्त है, इस पर राजनीति नहीं होनी चाहिए। गरिमामयी पीठ की भाषा को दोनों धर्म और
समुदाय के साथ पक्षकारों को समझना चाहिए।
आखिरकार आस्था से जुड़े इस संवेदनशील मसले का फैसला अदालत ही करेगी।
वह फैसला किसी के हित और दूसरे के विपरीत हो सकता है। उस स्थिति में सर्वोच्च
संवैधानिक पीठ का फैसला सभी को मानना होगा। लेकिन अगर हिंदू-मुस्लिम पक्षकार आपसी
सहमति से सौहार्दपूर्ण तरीके से विवाद का हल निकाल लेते हैं तो इससे बढ़िया कोई
तरीका नहीं होगा। इसका साफ संदेश पूरी दुनिया में जाएगा। जिस सहिष्णु
धर्म-संस्कृति के लिए भारत की पहचान विश्वभर में है, एक बार
फिर प्रमाणित हो जाएगी।
इस पर फैसला 31 मार्च को आना है। मुख्य
न्यायाधीश खेर के इस निर्णय को क्या हिंदू और मुसलमान दोनों समुदाय के लोग मानने
को तैयार होंगे? क्या मुस्लिम समुदाय राम जन्मभूमि कही जाने
वाली जमनी से अपना दावा छोड़ेगा? क्या आपसी बात से अदालत के
बाहर इसका फैसला हो जाएगा? तमाम ऐसे सवाल हैं, जिसके लिए अभी इंतजार करना होगा।
अदालत ने यह बात भाजपा नेता एवं अधिवक्ता सुब्रमण्यम स्वामी की
याचिका पर कही है। स्वामी की तरफ से मामले की शीघ्र सुनवाई के लिए याचिका दायर की
गई है। राममंदिर हिंदू और मुसलमान दोनों के लिए उतना महत्वपूर्ण है। आज
सांप्रदायिक बिलगाव की जो स्थिति बनी है, उसके बीच में भी
यही मसला है।
अयोध्या विवाद पर इलाहाबाद हाईकोर्ट की लखनऊ पीठ ने वर्ष 2010
में अपना फैसला सुनाया था, जिसमें पूरी
विवादित जमीन को तीन भागों में बांटने का फैसला किया था। एक भाग हिंदू पक्ष,
दूसरा वक्फबोर्ड और तीसरा हिस्सा तीसरे पक्षकार को देने निर्णय दिया
गया था। लेकिन पक्षकारों को यह फैसला मंजूर नहीं हुआ और मसला सुप्रीम कोर्ट चला
गया। बाद में केंद्र सरकार ने वहां की 70 एकड़ जमीन
अधिग्रहीत कर ली।
आस्था से जुड़े इस विवाद की सबसे बड़ी बात यह है कि इसकी पहल किसकी
तरफ से होनी चाहिए?
राममंदिर राजनीति का विषय नहीं है। देश और उसके सांप्रदायिक सद्भाव
के लिए यह अहम बात है। इस मुकदमे में एक पक्षकार रहे हासिम अंसारी ने कहा था कि वह
रामलला को तिरपाल के नीचे नहीं देखना चाहते। हालांकि उसी जगह पर उन्होंने बाबरी
मस्जिद की भी वकालत की थी। लेकिन अब वह हमारे बीच नहीं रहे, उनकी
जिम्मेदारी अब उनका बेटा उठा रहा है।
वैसे, सुप्रीम कोर्ट में इस मसले को ले जाने
वाले भाजपा नेता स्वामी का कहना है कि विवादित भूमि हिंदुओं को सौंप दी जाए और
मुसलमान सरयू पार जाकर मस्जिद बनाएं। क्या यह संभव है?
अयोध्या विवाद आस्था के साथ-साथ राजनीति, इतिहास
और समाजिक विवाद का मसला बन गया है। 68 सालों से यह झगड़ा
चला आ रहा है। वर्ष 1992 में विवादित ढांचा ढहाए जाने के बाद
यह हिंदुओं और मुसलमानों के बीच धार्मिक प्रतिष्ठा का सवाल बन गया। राजनीति की वजह
से सांप्रदायिता का रंग पकड़ा और देश को भारी नुकसान उठाना पड़ा।
राममंदिर आस्था के साथ-साथ दोनों समुदायों के लिए राजनीति का मसला
भी है। हिंदुओं का दावा है कि वहां राममंदिर था और मुगल आक्रमणकारी बाबर ने
राममंदिर को तोड़कर मस्जिद बनाई या मंदिर को मस्जिद का रूप दे दिया।
भगवान श्रीराम का जन्म अयोध्या में हुआ था। लिहाजा, यह तो सिद्ध है की वहां श्रीराम का मंदिर था और मुगल शासनकाल में उससे
छेड़छाड़ की गई। इस मंदिर का निर्माण विक्रमादित्य द्वितीय ने करवाया था।
राष्ट्रीय स्वंयसेवक संघ और भारतीय जनता पार्टी की अगुवाई में कारसेवा के दौरान 6
दिसंबर 1992 को विवादित ढांचा गिरा दिया गया
था। इसके बाद वोट के लिए देश को सांप्रदायिक दंगों की आग में झोंका गया।
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