मुनस्यारी से गिरिराज अग्रवाल
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ऊंचे हिमालय की गोद में बसे मुनस्यारी के बर्फीले आंगन में एक बग़ीचा सांस ले रहा है—न रंगीन फूलों का, न सुगंधित फलों का, बल्कि उस जीवन का जो चट्टानों से चिपक कर भी जीना जानता है। नाम है – 'लाइकेन गार्डन'। एक बग़ीचा, जो दुनिया का पहला ऐसा स्थल है, जहां इन चुपचाप जीने वाले, मगर पारिस्थितिकी तंत्र में शोर मचाने वाले जीवों को सम्मान के साथ जगह दी गई है।
लाइकेन – वो जो दिखता नहीं, मगर होता है
कभी किसी पहाड़ी ट्रेक पर चढ़ते हुए चट्टानों की सतह पर फैले हरे, भूरे, पीले रंगों को देखा है? जिन्हें न पौधा कह सकते हैं, न ही कोई फंगस? यही हैं लाइकेन—प्रकृति के सबसे पुराने और सहनशील जीवों में से एक।
इनका कोई शोर नहीं होता, कोई हरकत नहीं दिखती, लेकिन इनकी उपस्थिति ही कई सवालों का जवाब होती है—क्या हवा साफ है? क्या ज़मीन स्थिर है? क्या जीवन अब भी टिक सकता है?
उत्तराखंड का अनूठा प्रयास – लाइकेन गार्डन
उत्तराखंड वन विभाग की अनुसंधान शाखा ने मुनस्यारी के पिथौरागढ़ जिले में यह अनूठा प्रयोग किया—एक ऐसा गार्डन, जो सिर्फ लाइकेन को समर्पित है। 2 एकड़ में फैले इस उद्यान में लाइकेन की 96 से अधिक प्रजातियाँ संरक्षित की गई हैं। यह न केवल जैव विविधता का संग्रहालय है, बल्कि शोध, संरक्षण और जागरूकता का एक जीवंत मंच है।
जैविक संबंध की अनोखी मिसाल
लाइकेन अपने आप में एक जीव नहीं, बल्कि दो अलग-अलग जीवों का प्रेम-पत्र है—शैवाल और कवक का सहजीवी रिश्ता। जहां शैवाल प्रकाश संश्लेषण कर भोजन देता है, वहीं कवक उसे सुरक्षित रखता है। यह रिश्ता हमें भी कुछ सिखाता है—विपरीत होते हुए भी साथ रहना संभव है। शांति के लिए ज़रूरी है साझेदारी।
जुरासिक से अब तक – एक जीव की सहनशीलता की दास्तां
कहा जाता है कि लाइकेन जुरासिक युग से मौजूद हैं। वे उन कुछ जीवों में से हैं जो तापमान, ऊँचाई, हवा और यहां तक कि प्रदूषण के प्रति अत्यंत संवेदनशील होते हैं। जहां हवा शुद्ध होती है, वहीं लाइकेन खिलते हैं। और अगर कहीं ये गायब हो जाएं, तो समझिए हवा में ज़हर घुल गया है।
व्याख्या केंद्र – जहां विज्ञान कहानियां बन जाता है
गार्डन में बना व्याख्या केंद्र इस बग़ीचे की आत्मा है। यहां विभिन्न रंगों, आकारों और प्रकारों में विभाजित लाइकेन प्रजातियाँ मौजूद हैं—फोलियोज, फ्रूटिकोज और क्रस्टोज। हर एक अपनी एक अलग पहचान लिए हुए।
यह केंद्र न केवल छात्रों, शोधकर्ताओं और पर्यटकों को आकर्षित करता है, बल्कि उन्हें यह भी बताता है कि विज्ञान भी कहानियाँ कह सकता है—अगर ध्यान से सुना जाए।
लाइकेन – भोजन से लेकर इत्र तक
क्या आप जानते हैं कि सर्दियों में यही लाइकेन कस्तूरी मृग और रेन डियर का एकमात्र भोजन बन जाते हैं? या फिर हैदराबादी बिरयानी की असली महक जिस मसाले से आती है, वह भी एक खास किस्म का लाइकेन होता है? उत्तर प्रदेश का कन्नौज शहर जो इत्र के लिए मशहूर है, वहां भी लाइकेन की सुगंध एक अहम भूमिका निभाती है।
प्राकृतिक रंग, पारंपरिक दवा और आधुनिक चिंता
लाइकेन का प्रयोग पुराने समय से दवाओं में होता आया है—गठिया, कुष्ठ, त्वचा रोग, श्वसन व पाचन विकारों के इलाज में। साथ ही ये प्राकृतिक रंगों के स्त्रोत भी हैं। लेकिन अब ये प्रजातियाँ संकट में हैं। शहरीकरण, जलवायु परिवर्तन, वनों की कटाई और वाणिज्यिक दोहन ने इन्हें कई इलाकों से लगभग गायब कर दिया है।
गार्डन नहीं, एक चेतावनी है ये
यह गार्डन केवल एक सुंदर स्थल नहीं, बल्कि एक चेतावनी भी है—कि अगर हमने अभी ध्यान नहीं दिया तो वो जीव, जो हमारी हवा की शुद्धता, पर्वतों की उम्र और जंगलों की सेहत बताते हैं, हमारी आंखों से ओझल हो जाएंगे।
अंत में – लाइकेन का संदेश
एक चुप, धीमा, मगर अडिग जीवन… एक ऐसा रिश्ता जो अपने अस्तित्व से ही हमें सिखाता है—सहयोग, संतुलन और सतत विकास।
मुनस्यारी का यह लाइकेन गार्डन केवल प्रकृति प्रेमियों का नहीं, हर उस इंसान का है जो जानता है कि पृथ्वी सिर्फ पेड़ों और जानवरों से नहीं, बल्कि इन सूक्ष्म, मौन जीवों से भी जीवित है।
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