प्रयागराज, उत्तर प्रदेश। तमिल संत-कवि तिरुवल्लुवर की विचारधारा अब गंगा-जमुनी तहज़ीब की ज़मीन प्रयागराज में भी गूंजेगी। महा कुंभ मेले के ऐतिहासिक अवसर पर प्रयागराज में उनकी प्रतिमा का अनावरण समारोह एक ऐतिहासिक क्षण बन गया। इस आयोजन ने उत्तर और दक्षिण भारत के सांस्कृतिक संगम को एक नई ऊर्जा प्रदान की।
इस आयोजन की विशिष्टता यह रही कि इसे केंद्र सरकार के संस्कृति मंत्रालय, केंद्रीय शास्त्रीय तमिल शोध संस्थान (CID), चेन्नई, भाषा संगम और दक्षिण भारत के प्रमुख तमिल अख़बार हिंदू तमिल दिसाई के संयुक्त तत्वावधान में आयोजित किया गया। समारोह में उत्तर प्रदेश में कार्यरत तमिल अधिकारियों की गरिमामयी उपस्थिति रही, जो इस पहल की प्रतीकात्मक महत्ता को दर्शाता है। ये भी पढ़ें - अपने राज्य / शहर की खबर अख़बार से पहले पढ़ने के लिए क्लिक करे
तिरुवल्लुवर : भाषा से परे, नैतिकता के विश्वगुरु
वाराणसी के मंडलीय आयुक्त एस. राजलिंगम ने इस अवसर पर कहा, “तिरुवल्लुवर की विशिष्टता यही है कि उन्होंने 1330 दोहों में धर्म, अर्थ और काम जैसे विषयों पर गहन चिंतन प्रस्तुत किया, लेकिन इनमें कहीं भी 'तमिल' शब्द का उल्लेख नहीं किया। यही उन्हें सार्वभौमिक बनाता है। यह नीतिशास्त्र केवल तमिल समाज नहीं, पूरी मानवता की धरोहर है।”
उन्होंने आगे कहा कि महात्मा गांधी ने तमिलनाडु की यात्रा के दौरान तिरुक्कुरल पढ़ने की इच्छा व्यक्त की थी। यह तथ्य तिरुवल्लुवर की काव्य-संपदा की ऐतिहासिक और नैतिक महत्ता को रेखांकित करता है।
डीआईजी डॉ. एन. कोलंजी का प्रेरणादायी भाषण
कार्यक्रम के प्रमुख सूत्रधार प्रयागराज के डीआईजी डॉ. एन. कोलंजी ने अपने वक्तव्य में कहा, “तिरुक्कुरल के दोहे केवल सात शब्दों में जीवन के गूढ़ सिद्धांतों को समेट लेते हैं। जैसे योग दिवस को वैश्विक स्तर पर मनाया जाता है, वैसे ही तिरुवल्लुवर दिवस को भी अंतरराष्ट्रीय स्तर पर मान्यता मिलनी चाहिए।”
उन्होंने यह भी प्रस्तावित किया कि तिरुक्कुरल को राष्ट्रीय पुस्तक घोषित किया जाए और स्कूली पाठ्यक्रम में कम से कम एक दोहे को अनिवार्य रूप से शामिल किया जाए। डॉ. कोलंजी ने प्रसिद्ध दोहे 'देय्वत्ताल आगदेनिनुम...' का उल्लेख करते हुए कहा कि तिरुवल्लुवर का यह विचार उत्तर भारत की किस्मतवाद-प्रधान मानसिकता को सकारात्मक चुनौती देता है।
उत्तर भारत में तिरुवल्लुवर की पहली प्रतिमा
हिंदू तमिल दिसाई के दिल्ली स्थित वरिष्ठ सलाहकार आर. शफीमुन्ना ने ऐतिहासिक पृष्ठभूमि साझा करते हुए बताया कि तिरुवल्लुवर की प्रतिमाएं अमेरिका, यूरोप, थाईलैंड जैसे देशों में स्थापित हैं। लेकिन उत्तर भारत में यह पहली बार है जब उनकी प्रतिमा किसी सार्वजनिक स्थान पर स्थापित हुई है।
“तिरुक्कुरल एक ऐसा ग्रंथ है जिसे सभी धर्मों, विचारधाराओं और वर्गों के लोग समान रूप से सम्मान देते हैं। उत्तर भारत में भी यह सांस्कृतिक पुल का काम करेगा,” उन्होंने कहा।
भाषाओं का संगम : एकता की ओर
भाषा संगम, प्रयागराज आधारित एक सामाजिक संगठन, जो भाषाई सौहार्द के लिए पिछले 49 वर्षों से कार्यरत है, इस पहल का वास्तविक प्रणेता रहा है। संगठन के संस्थापक महासचिव स्वर्गीय के.सी. गौड़ ने 34 वर्ष पहले प्रतिमा स्थापना का प्रस्ताव रखा था, जिसकी परिणति अब जाकर हुई। इस अवसर पर उनकी पत्नी रेखा गौड़ को सम्मानित किया गया।
कार्यक्रम की शुरुआत दीप प्रज्वलन से हुई, और समापन सभी अतिथियों को तिरुक्कुरल की हिंदी अनुवादित पुस्तक और तिरुवल्लुवर की एक लघु प्रतिमा भेंट कर किया गया। यह पुस्तक केंद्रीय शास्त्रीय तमिल शोध संस्थान द्वारा प्रकाशित की गई है, जिसका विमोचन पूर्व में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने काशी तमिल संगमम में किया था।
अतिथियों की गरिमामयी उपस्थिति
समारोह में प्रयागराज के महापौर गणेश चंद्र केसरवानी, सीआईडी निदेशक डॉ. चंद्रशेखरन (जिनका भाषण डॉ. एन. देवी ने पढ़ा), इलाहाबाद संग्रहालय के निदेशक डॉ. राजेश प्रसाद, भाषा संगम के पूर्व महासचिव डॉ. एम. गोविंदराजन, और ए.के. मिश्रा जैसे गणमान्य अतिथि मौजूद रहे। कार्यक्रम का संचालन आनंद गिल ने किया, जबकि शांति चौधरी ने धन्यवाद ज्ञापन प्रस्तुत किया।
एकता का प्रतीक : तिरुवल्लुवर
यह आयोजन न केवल एक मूर्ति की स्थापना था, बल्कि भारतीय संस्कृति की एकात्मकता और विविधता का उत्सव भी था। उत्तर और दक्षिण भारत के मध्य ऐतिहासिक रूप से रहे भावनात्मक फासले को पाटने की दिशा में यह कदम सांस्कृतिक समन्वय का प्रतीक बनकर उभरा है।
डॉ. कोलंजी जैसे अधिकारियों की भूमिका यह सिद्ध करती है कि जब नीतिशास्त्र और कर्तव्यपरायणता साथ चलें, तो भाषा और भौगोलिक सीमाएं ध्वस्त हो जाती हैं। प्रयागराज की इस धरती पर तिरुवल्लुवर की उपस्थिति अब नई पीढ़ी को नैतिक जीवन का पाठ पढ़ाने वाली बनेगी।
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