लखनऊ। उत्तर प्रदेश के कैरान लोकसभा सीट पर हुए उपचुनावों में आरएलडी की तबस्सुम हसन का जीतना एक तरह से प्रदेश में पार्टी को पुनर्जन्म देना है। कैराना में सपा बसपा ने आरएलडी उम्मीदवार को समर्थन दिया था। वहीं इस जीत से आरएलडी के मुखिया अजित सिंह को प्रदेश में एक नई उम्मीद दिखाई दी है। क्योंकि 2014 में राज्य में उनकी पार्टी का सफाया हो गया था वहीं 2017 में पार्टी ने प्रदेश में मात्र एक सीट जीती। ये भी पढ़ें - अपने राज्य / शहर की खबर अख़बार से पहले पढ़ने के लिए क्लिक करे
कैराना में वर्ष 2014 के लोकसभा चुनाव के वक्त भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) ने जीत भले हासिल की हो लेकिन सांसद हुकुम सिंह के निधन के बाद पार्टी की इस सीट पर दावेदारी कमजोर होती चली गई। हालांकि, राष्ट्रीय लोकदल (आरएलडी) की ओर से अजित सिंह और जयंत चौधरी ने विपक्षी एकता की नाव पर सवार होकर सियासी अस्तित्व को बचाने की दिशा में पूरी ताकत झोंक दी है।
2014 में नहीं खुला था खाता, 2017 में जीती मात्र एक सीट
गौरतलब है कि साल 2014 के लोकसभा चुनाव में जहां आरएलडी का खाता तक नहीं खुला था, वहीं वर्ष 2017 में हुए उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव के दौरान राष्ट्रीय लोकदल के हाथ बागपत की छपरौली सीट ही लगी। इस सीट से विधायक सहेंद्र सिंह रमाला को राज्यसभा चुनाव में अजित सिंह के निर्देशों का पालन ना करने की वजह से आरएलडी से बाहर का रास्ता दिखा दिया गया। बाद में सहेंद्र बीजेपी में शामिल हो गए, इसे अजित सिंह के लिए एक बड़ा झटका माना जा रहा था।
2014 में अपना बागपत भी नहीं बचा पाए थे अजित सिंह
मुजफ्फरनगर दंगों के बाद हुए 2014 लोकसभा चुनाव में भाजपा को ध्रुवीकरण का काफी फायदा मिला था और मोदी लहर में खुद आरएलडी अध्यक्ष अजित सिंह बागपत से चुनाव हार गए थे। ऐसा साफ नजर आ रहा है कि कैराना के चुनाव में अजित सिंह ने अपने पुराने समीकरण जाट और मुस्लिम को साधने में कामयाबी हासिल की है।
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